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अधिक लेखों से प्राप्त ठामिय कुल के रूप में प्राप्त हुआ है। इसी तरह चतुर्थ 'पहवाहण' तो परहवणय कुल ( ६६ ) मालुम होता है। उक्त गण की चार शाखायें थी । प्रथम 'उच्चानगरि' तो अनेक लेखों की उच्छेनगरी ही है। द्वितीय विबाहरी' शाखा लेख नं०६२ की विद्याधरी शाखा मालूम होती है। तृतीय 'बहरी' शाखा को हम अनेक लेखों में वेरिय, बेर, बैर, बहर के रूप में देख सकते हैं। चनुर्थ 'मज्झिमिला' शाखा लेख नं० ६६ की मझम शाखा हो समझना चाहिये ____ आर्य श्रीगुप्त गणी से 'चारण' गण निकला था जो कि मथुरा के अनेक लेखों में वारण गण के रूप में पढ़ा गया है। उससे सम्बन्धित ७ कुलों में से 'पीइधम्मित्र' लेख नं० ३४ एवं ४७ का पेतवमिक मालुम होता है । 'हालिब' कुल लेख नं० १७,४४ एवं ८० का अार्य हाटिकिय प्रतीत होता है । 'पूसमित्तिज' लेख नं० ३७ का पुश्यमित्रीय तथा 'अजवेडय' कुल लेख नं० ४५ का श्रायंचेटिय एवं नं. ५२ का अय्यमिस्त ( १ ) और 'कएहसय लेख नं. ७६ का कनियसिक विदित होते हैं। इसी तरह उक्त गण की चार शाखाओं में 'हारियमालागारी' लेख नं० ४५ की 'हरीतमालकाधी,' 'वजनागरी' लेख नं० ११,४४ एवं ८० को वाजनगरी, 'संकासीत्रा' लेख नं० ५२ की सं ( कासिया) तथा 'गवेधुका' लेख नं. ७६ में अोद ( संमव गोदुक ) के रूप में पढ़ी गयी है।
इस तरह ३ गण, १२ कुल एवं १० शाखाओं के नाम लेखों और कल्पसूत्र स्थविरावली में बराबर मिल जाते हैं। केवल लेख नं० ८२ के बारण गण के नाडिक कुल का मिलान नहीं हो सका है । संभव है यह नाम अन्य नामों के समान लिखने की अशुद्धियों के कारण अज्ञात सा प्रतीत होता है।।
कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार काल की दृष्टि से इन मणों, कुलों और शाखाओं का श्राविर्भाव वीर सं० २४५-२६१ अर्थात् ई० पूर्व २८२-२३६ के बीच हुना था और मथुरा के लेखों से मालूम होता है कि ये गुप्त संवत् ११३ अर्थात् सन् ४३४ तक बराबर चलते रहे।