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किये जाने या लेखों का गलत छापा लेने तथा नकल को गलत पढ़े जाने पर श्री उक्त दोनों पट्टाबलियों के कई नामों के साथ साम्य स्थापित किया जा सकता है।
संभव है सम्प्रदाय का नाम गण, उसके विभाग का नाम कुल तथा उसके उपविभाग का नाम शाखा था । ये नाम जैन श्रमणों के उन विभिन्न संघों की ओर संकेत करते हैं जो कि ईसा पूर्व की कुछ शताब्दियों में जैन श्रमणों में अपनी अपनी श्राचार्य परम्परा और पर्यटन भूमि की विभिन्नता के कारण पैदा होना शुरु हुए, थे I
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कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार वर्धमान स्वामी की परम्परा में ६ वीं पोड़ी सुहस्ति हुए जो कि श्रार्य स्थूलभद्र के अन्तेवासी थे । इन श्रार्य सुइस्ति के १२ अन्तेवासी थे । इनमें से आर्य रोहण, आयं कामर्धि श्रार्य सुस्थित तथा सुप्रतिबुद्ध एवं आर्य श्रगुप्त से निकलने वाले गण, कुल एवं शाखाओं के कई एक नाम लेखों में पहिचाने जा सके हैं ।
तदनुसार श्रार्य रोहण गणी से 'उद्देह' गण निकला जो कि हमारे लेख २४ एवं ६६ का 'उद्दे किये गए समझना चाहिये । उक्त गणके ६ कुल थे जिनमें से केवल दो की पहिचान हो सकी है । 'नागभूय' कुल हमारे लेख नं० २४ का 'नागभूतिय' होना चाहिये । 'परिहासक' गलत रूप से लिखा या पड़ा जाकर लेख नं० ६६ में पुरिध के रूप में प्रतीत होता है । उक्त गण की चार शाखायें थीं जिनमें एक शाखा 'पुराण पत्तिका' लेख नं० ६६ की पेतपुत्रिका होना चाहिये ।
Tara aur से वेसवाडिय गण निकला । यद्यपि यह नाम लेखों में स्पष्ट रूपसे उत्कीर्ण नहीं मिला लेकिन उक्त गणके चारकुलों में से एक 'मेहियकुल' मेहिक के रूप में २६ और ६३ वे लेख में प्राप्त हुआ है ।
श्रार्य सुस्थित एवं सुप्रतिबुद्ध गणी से 'कोडिय' गण निकला जो कि अनेकों लेखों में कोट्टिय के रूप में मिलता है। इस गण के चार कुलों में पहले कुल 'लिज' को तो अनेकों लेखों का ब्रह्मदासिक कुल ही समझना चाहिये । दूसरा 'वस्थलिज' भी लेख नं० २७ कावच्छलिय प्रतीत होता है। तृतीय 'वाणिन' कुल