________________
.. सामजिक इतिहास की दृष्टि से भी ये लेख बड़े महत्व के हैं। इन लेखों में गणिका (८) नर्तकी ( १५ ) लुहार ( ३१,५४ ) गन्धिक ( ४१,४२,६२,६६) सुवार ( ६७), ग्रामिक (४४) तथा श्रेष्ठी ( १६,२६,४३ ) आदि जातियों या वर्ग के लोगों के नाम मिलते हैं जिन्होंने मूर्ति आदि का निर्माण, प्रतिष्ठा एवं दान कार्य किये थे। इनसे विदित होता है कि २ हजार वर्ष पहले जैन संव में सभी व्यवसाय के लोग बराबरी से धर्माराधन करते थे। अधिकांश लेखों में दातावर्ग के रूप में स्त्रियों की प्रधानता है जो बड़े गर्व के साथ अपने पुण्य का भागधेय अपने माता-पिता सास-ससुर पुत्र-पुत्री, माई आदि श्रात्मीयों को बनाती थीं (१४)। इन स्त्रियों में बहुतसी विधवाएं थीं जो वैधव्य के शोक से घर महत्यी छोड़कर विरक्त हो जैन संघ में आर्यिका हो गयीं थीं । लेख नं. ४२ में ऐसी ही स्त्री कुमारमित्रा थी जिसे लेख में आर्या कुमारमित्रा लिखा है तथा उसे संशित, मखित एवं बोधित कहा गया है।
इन लेखों से एक और महत्व की बात सूचित होती है कि उस समय लोग अपने व्यक्तिवाचक नाम के साथ माता का नाम जोड़ते थे जैसे वात्सीपुत्र, तेवणीपुत्र, वैहिदरीपुत्र, गोतिपुत्र, मोगलिपुत्र एवं कौशिकिपुत्र श्रादि । ऐसे नाम सांस्कृतिक-इतिहास निर्माण की दृष्टि से मूल्यवान् हैं।
जैन धर्म के प्राचीन इतिहास की दृष्टि से मथुरा के ये लेख और भी बड़े महत्त्व के हैं। इन लेखों में मूर्ति के संस्थापक ने न केवल अपना ही नाम उत्कीर्ण कराया है बल्कि अपने धर्मगुरुत्रों का नाम भी, जिनके कि सम्प्रदाय का वह था । इनमें श्राचार्यों की उपाधियाँ-आर्य, गणी, वाचक, महावाचक, प्रातपिक आदि जो कि उस समय प्रचलित थीं, दी गई है। लेखों में अनेक गणों, कुलों और शाखाओं के नाम भी दिये गये हैं । ठीक इस प्रकार के गण, कुल एवं शाखा, श्वेताम्बर अम्गम 'कल्पसूत्र' की स्थावरावली में तथा कुछ वाचक श्राचार्यों के नम्म नन्दिसूत्र की पट्टावली में मिलते हैं । महत्त्व की बात तो यह है कि लेखों का कुछ हिस्सा घिस जाने या पत्थर के कारीगर द्वारा गलत ढंग से उत्कीर्ण