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वोंकों उखी करताहै. इस हेतु ही अन्यायी, निदयी, असमर्थ ईश्वर सिद्ध होताहै. इस वास्ते ईश्वर नगवंत किसीकों पुन्य पापका फल नही देताहै. इस चर्चाका अधिक स्वरूप देखना होवे तो हमारा रचा हुआ जैनतत्वादर्शनामा पुस्हक बांचनां.
प्र. ११७--जब ईश्वर पुन्य पापका फल नही देताहै, तो फेर पुन्य पापका फल क्योंकर जीवांको मिलताहै ?
न.--जब जीव पुन्य पाप करतेहै तब तिनके फल नोगनेके निमित्तन्नी साथही होनेबाले बनाता करताहै, तिन निमित्तो द्वारा जीव शु. नाशुन्न कर्मोका फल नोगतेहै, तिन निमित्तोका नामही अज्ञ लोकोने ईश्वर रख गेमाहै.
प्र. ११५-जगतका कर्ता ईश्वरहै के नही ?
न..-जगततो प्रवाहसे अनादि चला आताहै. किसीका मूलमें रचा हुआ नहाहै. काल १ स्वन्नाव २ नियते ३ कर्म ४ चेतन अात्मा और जड पदार्थ इनके सर्व अनादि नियमोसें
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