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लीनैहै; हमारे अनुमानसेंतो यहो सिइ होता है.
प्र. १४४-कोई यूरोपियन विद्वान् ऐसे क हताहै कि बौद्धमतके पुस्तक जैनमतसें चढतेहै?
न-जेकर श्लोक संख्यामे अधिक होवे अ. थवा गिनतिमें अधिक होवे अथवा कवितामें अ. धिक होवे, तबतो अधिकता को माने तो हमारी कुछ हानि नहीहै, परंतु जेकर ऐसें मानता होवेके बौद्ध पुस्तकोमें जैन पुस्तकोंसे धर्मका स्वरूप अधिक कथन करा है, यह मानना बिलकुल भूल संयुक्त मालुम होताहै, क्योंकि जैन पु स्तकोंमें जैसा धर्मका रूप और धर्म नीतिका स्व रूप कथन कराहै, वैसा सर्व पुनीयांके पुस्तकोंमें नही है.
प्र. १४५-जैनके पुस्तक बहुत थोमे है, और बौधमतके पुस्तक बहुत है, इस वास्ते अधिकता है?
न-संप्रति कालमें जो जैनमतके पुस्तकहै वे सर्व किसी जैनीनेनी नही देखेहै, तो यूरोपीयन विज्ञान कहांसे देखे; क्योंकि पाटन और जै
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