Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottar
Author(s): Jain Atmanand Sabha
Publisher: Jain Atmanand Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 253
________________ तासे पर्वतके प्रांबादि वृक्रवत् ब्रह्मदेवलोकावधि वनोंकी नी सुख फल देते है ॥७॥ ये सर्व पर्वतके विचित्रताजा वन समान कथन करे, परंतु सम्यम् ननी ॥३॥ दृष्टोको ये सर्व त्यागने योग्यहै ॥ इति तोसरा धर्म नेद ॥३॥ एक धर्म न इस वन समान श्रा (श्रावक) धर्म पवन समानासम्यक्त्वे पूर्वक बारांव्रताकी अपेक्षा श्रावक धर्महैतेरासौकरोम अधिक नेद होनेसे वि. राजके वनचित्र प्रकारका सम्यग् गुरु समीपे अंअंब, जंबू रा-गोकार करनेसे परिगृहीतहै, अज्ञान जादनादि जामए लोकिक धर्मसें अधिकहै, और अ घन्य वृक्ष हैतिचार विषय कषायादि चौर श्वापकेला, नालो दादिकोंसे सुरक्षितहै, और गुरु नपकेर सोपारी देश आगमाभ्यासादि करके सदा सुआदिमध्यम सिंच्य मानहै, सौ धर्म देवलोकके माधवी लता सुख जघन्य फल है, सुलन्नबोधि हो तमाल एला, नेसे और निश्चित जलदी सिहि सुलवंग चंदनाखांके देनेवाले होनेसें और मिथ्यागुरुतगरा दयात्वीके सुखांसें बहुत सुन्नग आनंदा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270