Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottar
Author(s): Jain Atmanand Sabha
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 241
________________ २३५ माम नही लिखते है, अतीत कालमेंतो ऐसे कु. लवालकादिकोंके दृष्टांत जान लेने, कुलवालकमें सुविहित यतिका वेषतो था. १ परं मागधिका ग णिकाके साथ मैथुन करने में आशक्त था, इस वास्ते अहो क्रिया नहोथी और विशाला नंगादि महा आरंनादिका प्रवर्तक होनेसे नपदेशनी शुरुनही था, सामान्य साधु होनेसे वा नपदेशका तिसकों अधिकार नही था, ३ ऐसेही महाव्रतादि रहित १ नत्सूत्र प्ररूपक (गुरु कुलवास त्यागो) सो कदापि शुइ मार्ग नही प्ररूप शक्ताहै २ निकेवल यति वेषधारक है ३ इति प्रथमो गुरु नेद स्वरु प कथनं ॥१॥ दूसरा गुरु कोंच पदी समान है. २ कोंचपक्षीमें सुंदर रूप नही है, देखने योग्य वर्णादिके अन्नावसे १ क्रियानी अहो नही, कीमे आदिकोंके नदण करनेसें २ केवल उपदेश (म धुर ध्वनि रूप ) है ३ ऐसेही कितनेक गुरुयों में रूप नही. चारित्रिये साधु समान वेषके अन्नाव से १ सत क्रियानी नही, महाव्रत रहित और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ____www.umaragyanbhandar.com

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