Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottar
Author(s): Jain Atmanand Sabha
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 249
________________ चित् प्रअमास्नानाविकके करनेसे पांचो इंडियोंके खाते हुए मो पोषनरूप और तप न करनेसे आ. ठी लगती है दिमें तो मीग (अला) लगता है, प. परंतु कंटकारंतु नवांतरमें दुर्गति आदिक अनर्थ कोर्म होनेसे कल नत्पन्न करताहै, इस वास्ते यह विदारणादि धर्मन्नी त्यागने योग्य है।। इति दूसअनर्थका हेतु रा धर्म नेद ॥२॥ हौवेहै ॥२॥ एक धर्म पर्व इस वन समान तापस ! नैयायिक, तके वनतथा वैशेषिक, जैमनीय, सांख्य, वैश्नवा जंगली वनादि आश्रित सर्व लौकिक धर्म और समानहै,इस चरक परिव्राजक इनके विचित्रपणे. वनमें थोहर,से विचित्र प्रकारका फलहै सो दि कंधेरो, कुमाखातेहै, कितनेक वेदोक्त महा यज्ञ, र प्रमुखके फापशुवध रूप स्नान होमादि करके धर्म ल देनेवाले समानतेहै, वे कंधेरो वनवत् है. परन्नकहै और कं-वमें अनर्थरूप जिनका प्राये फल हो टकादिसें वि-वेगा. और कितनेक तो तुरमणोश दारण करणेदत्तराजाको तरे निकेवल नरकादि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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