Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottar
Author(s): Jain Atmanand Sabha
Publisher: Jain Atmanand Sabha
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२६४ से अनर्थके-फल वाले होते है । तथाचोक्तं आर.
नी जनकदेण्यके ॥ येवैश्हयथा श् यज्ञेषुपशुन्विश १और कित-संतितेतथा २ इत्यादि ॥ तथाशुकसं. नेक धव स-वादे॥ यूपं ठित्त्वा, पशून हत्वा, कृत्वा लकोके सुप रुधिर कई मं, यद्येवं गम्यते स्वर्गे, नरलाश पनस के केन गम्यतेः॥१॥ स्कंधपुराणे ॥ सीसमादि वारदां बित्वा, पशून् हत्वा, कृत्वा रु कहै,इनके फाधिर कर्दमं, दग्ध्वा वन्हौ तिलाज्यादि, लतो निःसा चित्रं स्वयोनिलष्यते ॥१॥ कितनेक रहै, परंतु विअपात्रको अशुद्ध दान गायत्र्यादिके शिष्ट अनर्थ जापादि धव पलाशादिवत् प्राय फल जनक नहीहैदेनेवालेनो सामग्री विशेष मिले किं २ और कितचित् फलजनक है, परं अनर्थ जनक नेक वेरी खे-नही, विवक्षितहै, इस स्थल में प्रतिदिन जमो खयरा-लद दान देनेवाला मरके हाथी हुए दि निःसार सेववत्, तथा दानशालादि करानेवाले अशुन्नफलदेतेनंदमणिकारवत् और सेचनक हाथीके हैकंटकोंसेवि जीव लद नोजी ब्राह्मणवत् दृष्टांत दारणादि अजानने ॥॥ कितनेक तो सावद्य (स
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