Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottar
Author(s): Jain Atmanand Sabha
Publisher: Jain Atmanand Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 204
________________ १०० न नाम कर्मकी ३४ चौतीस प्रकति बांधे, येह सतसा ६७ प्रकृतिकी अपेक्षा करके बंध कथन करा, इति नामकर्म ६ संपूर्ण. __ अथ गोत्रकर्म तिसके दो नेद. प्रथम नंच गोत्र, विशिष्ट जाती, दत्रिय कास्यापादिक नुयादी कुल नत्तम बल विशिष्ट रूप ऐस्वर्य तपो गुण विद्यागुम सहित होवे, सो नंचगोत्र १ तथा निदाचरादिक कुल जाती आदोक लहे सो नीचगोत्र २ अथ नंचगोत्रके बंध हेतु ज्ञान, दर्शन, चारित्रादोक गुण जिसमें जितना जाने, तिसमें तितना प्रकाशकर गुण बोले, और अवगुण देख के निंदे नही, तिसका नाम गुण प्रेक्षी है, गुण प्रेकी होवे, जातिमद १ कुलमद २ बलमद ३ रूपमद ४ सूत्रमद ५ ऐश्वर्यमद ६ लान्नमद ७ तपोमद ये आठ मदको संपदा होवे, तोन्नी मद न करे, सूत्र सिांत तिसके अर्थके पढने पढानेकी जिस कों रुचि होवे, निराहंकारसें सुबुद्धि पुरुषको शास्त्र समकावे, इत्यादि परहित करनेवाला जीव नंच गोत्र बांधे, तीर्थंकर सिह प्रवचन संघादिकका अं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270