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१२॥ पुस्तकोंमे नहीहै, तो फेर ब्राह्मणोके मतके ज्ञानसे जैन मत रचा क्योंकर सिह होवे, बलकि यह तो सिझनी हो जावेके सर्व मतोमें जो जो सूक्त वचन रचना है वे सर्व जैनके द्वादशांग समुश्केही बिंऽ सर्व मतोमे गये हुएहै. विक्रमादित्य राजेके प्रोहितका पुत्र मुकंदनामा चार वेदादि चौदह वि द्याका पारगामी तिसने वृद्धवादी जैनाचार्यके पास दोदा लीनो. गुरुने कुमुदचं नाम दीना
और आचार्यपद मिलनेसें तिनका नाम सिद्धसेन दिवाकर प्रसिह हुआ, जिनक' नाम कवि कालो दासने अपने रचे ज्योतिर्विदानरण ग्रंथमें विक्रमादित्ययकी सन्नाके पंमितोके नाम लेतां श्रुतसेन नामसें लिखाहै, तिनोने अपने रचे बत्तीस बत्ती सी ग्रंथमें ऐसा लिखाहै, सुनिश्चितं नःपरतंत्र युक्तिषु ॥ स्फुरतिया कश्चिन्मुक्तिसंपदः ॥ तवैवतांः पूर्वमहार्णवोचता ॥ जगत्प्रमाणं जिनबाक्य विपुष ॥१॥ नदधाविव सर्व संधव ॥ समुद्दीरणा त्वयि नाथ दृष्टयः ॥ नचतासु नवान्प्रदृश्यते ॥ प्रविन्नक्त सरित्स्विवोदधिः ॥ १ ॥ प्रथम श्लोक
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