Book Title: Indian Antiquary Vol 40
Author(s): Richard Carnac Temple, Devadatta Ramkrishna Bhandarkar
Publisher: Swati Publications

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Page 65
________________ FEBRUARY, 1911.) A LACUNA IN THE HARIVAMSA Snochchhishțdydah sraji nigalitam yd balát kritya bhuille Godd tasyai nama idam-idash bhiya evd'stu bhūyaḥ. (vide: Tiru-p-pivai] In this verse Nila is referred to. She is the third Holy Spouse, or Queen, of Nardyapa, the other two being srt and Bha, and born again as Nappinnai (Nija) for Krishna. 3. Periya-v-ficchån-Pillai alias Krishņa-Samah ayat wrote a commentary on the female Saint Andal's “Holy Lyric" the Tiru-p-pdoai,and,when commenting on the invocatory verse above quoted, he discussed the point as to who represented Ni!, when Krishộa represented Narayana in the Divine Cosmic Drama of the Krishna-Avatara, (Krishna's Incarnation or Descent on Earth). Rocited verses to show that the daughter of certain Kambha was Nila thus born, beginning with the verse: Sydlo' tha Nanda-Gopasya, go. 4. When searching for these verses in the available printed editions of the Vishnu-purdna and the Hari-tanta, I could not trace them; but a M8. was discovered by a friend of mine, which is said to belong to the collections of Sanskrit MS8 in the Madras Government Library. In this MS. four Adhy dyas were found embodying the verses cited by Periya-v-acchan. Pillai. Fearing that they may be missed or lost again or lost sight of by those seeking for references, I send a transcript for record and preservation in the pages of the Indian Antiquary. . वैशंपावनः॥ स्वालोय नंदगोपस्थ मिथिलेषु गवांपतिः । प्रवृद्धगोधनो पक्षः कुंभको माम मामतःसिता गुग्धस्व सर्वेषां तकस्वच घृतस्य च | जनस्य प्रियवाइनित्वं वशोरावा अपन्बमः॥धर्ममा तस्य भार्यासीद्धर्मदेवतमामतः । सासूतात्वबुगल शोभनं गोपभूषणं । तयोस्तव पुमान् जातः श्रीवामानामविश्रुतः । सर्वेश्व समुर्घकस्सर्वप्राणिमनोरमाः ॥ नीला नाम च कन्बासीद् रूपौदार्यगुणान्विता । हसन्ती गमनेसान् भूस्पृष्टचरणी मृदः । पचपननिभी पारी पर्नुलाबसधिनी । नीलाक्षी मानुसंधाना मंसकोरुहवा मूदुः ।। रथविस्तीर्णजयना मृतुकीर्णकळविका। विशालोरुसमाविष्टा चकनामिमनोरमा || कमावर्षवलीनिम्ना तनुमध्या तनूरुहा । सवर्णकुंभसदृशौ दृती पीनी स्तनौ मृद ॥ धारयन्ती मस्पर्णा कामस्व जननी सकिंबुपीवानुमांसा सा सकपोलमनोहरा | शुभविद्रुमाथिबोष्ठी सक्ती शुभनासिका | विनितांबुअपना सा नीलोत्पलनिभेक्षणा विलासिनी पुरणीता (?) स्मरचापनि र भुवोधानामुस्निग्धा अर्धचंद्रललाटिका।। वीर्षकुचितकेशाब्या लक्षणैस्तकलेर्युता विलोकरनभूता सा विश्ववित्तविलासिनीयौवनस्था मुकांतांगी देवमविलोभिनी सांबवःस्सर्वभूपाला भूयोभूवी विशांपते ।। न तेषां कस्यचिता पिता विधिवलाश्रयात् । एतस्मिन्नेव काले तु वृषरूपा महासः॥ कालनेमिसुतास्सम विकांता बाहुशालिनः । तदा देवासरे युद्धे विष्णुना प्रभाविष्णुना ।। संपामान् बहुधः कला तेन बुद्धे मितास्तरा | दिशोमूढा प्रजग्मुस्ते विष्णुं हतुं समुद्यताः॥ बावत् कृष्णा यदुकुले जातो देतेवसत्तमाः । ज्ञात्वा विष्णु अबकुले बलवंतस्समास्थिताः|वृषरूपधरास्सप्त कुंभकस्व व्रवसन्। बलवंतो महाशृंगामहरकंक्षिधिरोरुहागलंबसास्ना महापीवा महाकुंभककुपिनः । पृथतीर्घमहाबालाः पृथुतीमखुगःखराः ॥ दीर्घवक्ता वीर्षवंताः कुंडनवा कुकर्मका। निस्यप्ता महाकावासिताशेषगोगणाः॥ ते वृषाः सर्वतो जग्मुः गाववत्सांश्च दुर्मशः | गर्भानामावबन् सर्वान् गवांसस्थान्यभक्षयन् ॥ विदेहराश्ये जाताय भक्षविस्वा मूहर्मुहः सस्थानां फलितान् सर्वान् आधावति स्म सर्वतः॥ कुंभकाय ब्रजेरावी वसति स्म मुशान्विताः कृषीवलास्ततस्सर्वे राज्ञो मिथिलवर्मणः।न्यवेदयंस्तदासर्व पैस्सस्यविनाशनं वान्वेव सबसस्थान राष्ट्रजातानि सर्वशः। भक्षितानि समस्तानि कुंभकस्य वषेप || सप्तभिस्सस्समुद्रिक्तर्वमनेन विजितः॥ तेनिवार्वा महीपाल बदिते स्वामगठबं|सादयति महुस्सर्वा नष्टा राजनूभवत्प्रमाः॥इतितेषां वचः श्रुलाराजाजनकसंभवः। इतः कुंभकमाववचन दमब्रवीत् ॥ तव सप्त वृषा गोपा निर्दमास्सस्वपातकाः । पम्यतामय सर्वेसे वपास्सर्वप्रबलतः ॥भन्दा बण्डल एवस्वासबंधुस्सप्री भवान् । गच्छ गोपर्मतियुतेर्दमने कुशलैस्सम ॥ दम्यन्तां से वृषास्सप्त नभ विचवेतवमर्धराचोकचिसान्दानवान्वृषरूपिणः||गोपालरसरस्सा) निवन्तुमुपचक्रमुः। रज्जुहस्तास्तासर्वे मंदमवमुपायाभय बनवान्डा रम्नुहस्तान् समततः ।हुंभारवं प्रकुर्वन्तो गोपानेवाभिहतानपुरेषगकोणेश समाजग्मुस्समततः । तेइता गोपमुख्यास्ते गतप्राणा- सम भुवि । पतिताः शेरते भूमो वजनमापाचलाः बारकावारिका वत्सास्तईताः पंडिता अदिगिरते मतभूविष्ठाः कुंभकस्व व्रोमानिष्टमभवत्सर्वे व निहतारकं ॥नकस्त वानरोजमनिरुपता निस्सिर्व एवामी भग्नास्त पापभिः ।। व्रजेतस्मिन्महीपाल निहते च तथापरे विसंज्ञः कुंभको भूत्वा निघटस्समपयन |तनी विश्व तेगाँपर्मतिरेवं समादधे | समानां वृषमलानां दमिना बो भवेदावि ॥ तस्मै कन्यां प्रदास्यामि मीलां मीरजलोचनां | गोपाः सर्व समावान्तु वे गोपा गोइजीविनः ॥ भूखा वा समर्याः सस्ते चागच्छंतु सर्वशः। एवमापोषयामास कुंभकस्स बोकिल ॥ इति श्रीहरिवंये निषष्टितमोभ्यायः .A.D. 1150. 800 No. 85-Table, op.cft. . On page 880, Journal L. A. S. 1910, . M8. of Harivamia in connection with Mar Müller Memorial Fund, has been secured in Oxford. I am curious to know if these missing ohapters are there.

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