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पृ०
पं०
८४ १६
८५
४.
८६
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१०१
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१५
२६
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३
२२
५
४
८
२५
५
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१९
गरमी में
धरिण
जाती
इस
उसके
( ४ )
अशुद्ध
भुला देने
अब हद
अर्थ
ज्ञान को
दूसरे यह भी
अग
सेत्रा
भग भी न
होगा
करना
करी दुख
दीघ
निर्जगा
किस तरह
भगने
चाहिए
क्यों
अने
धर्म साधन
शुद्ध
गरमी से मन में
धारण
रहती
भूल जाने अनहद
व उसके अर्थ को
ज्ञान की
दुसरा यह भी है
यह
उनके
भंग भी नहीं
होगी
करनी
अंग
सेवा
दुःख करी
दीर्घ
निर्जग
क्यों
भोगने
चाहिए इसका विकास करना चाहिए
क्या
आगे
धर्म साधन करते समय