Book Title: Atmamimansa
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ उक्त द्वैत विचार-धारा में चेतन और उसका विरोधी अचेतन इस प्रकार दो तत्त्व माने गए, इसीलिए उसे 'द्वैत परंपरा' का नाम दिया गया है। किंतु वस्तुतः सांख्यों और जैनों के मत में व्यक्ति भेद से चेतन अनेक हैं। वे सब प्रकृति के समान मूलरूप में एक तत्त्व नहीं हैं। जैनों की मान्यतानुसार केवल चेतन ही नहीं, प्रत्युत अचेतन तत्त्व भी अनेक हैं। जड़ और चेतन इन दो तत्त्वों को स्वीकृत करने के कारण न्यायदर्शन तथा वैशेषिक दर्शन भी द्वैत विचार धारा के अन्तर्गत गिने जा सकते हैं। किंतु उनके मत में भी चेतन एवं अचेतन ये दोनों सांख्य सम्मत प्रकृति के समान एक मौलिक तत्त्व नहीं; परन्तु जैनों द्वारा मान्य चेतन-अचेतन के समान अनेक तत्त्व हैं। ऐसी वस्तुस्थिति में इस समस्त परंपरा को बहुवादी अथवा नानावादी कहना चाहिए। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि बहुवादी विचारधारा में पूर्वोक्त सभी दर्शन आत्मवादी हैं; किंतु जैन आगम और पालित्रिपिटक इस बात की भी साक्षी प्रदान करते हैं कि इस बहुवादी विचार धारा में अनात्मवादी भी हुए हैं। उनमें ऐसे भूतवादियों का वर्णन उपलब्ध होता है जो विश्व के मूल में चार या पाँच भूतों को मानते थे। उनके मत में चार या पाँच भूतों में से ही आत्मा की उत्पत्ति होती है, आत्मा जैसा स्वतंत्र मौलिक पदार्थ नहीं। दार्शनिक सूत्रों के टीका ग्रंथों के समय में जहाँ चार्वाक, नास्तिक, बार्हस्पत्य अथवा लोकायत मत का खंडन किया गया है, वहाँ पर भी चार भूत अथवा पांच भूतवाद का ही खंडन है। अतः हम यह कह सकते हैं कि दार्शनिक सूत्रों की व्यवस्था के समय में उपनिषदों के प्राचीन स्तर के अद्वैती अनात्मवादी नहीं थे, मगर उनका स्थान नानाभूतवादियों ने ले लिया था। ये नाना भूतवादी विश्वास रखते थे कि चार १ सूत्रकृतांग १.१.१.७-८; २. १. १०; ब्रह्मजालसुत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 162