Book Title: Atmamimansa
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

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Page 12
________________ जबतक मनुष्य में विचार-शक्ति का समुचित विकास नहीं होता, वह बाह्यदृष्टि बना रहता है। जब तक उसकी दृष्टि बाह्य विषयों तक सीमित रहती है, वह बाह्य इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य तत्त्वों को ही मौलिक तत्त्व मानने के लिए उत्सुक रहता है। यही कारण है कि हमें उपनिषदों में ऐसे अनेक विचारक दृष्टिगोचर होते हैं जिन के मत में जल' अथवा वायु जैसे इन्द्रिय ग्राह्य भूत विश्व के मूलरूप तत्त्व हैं। उन्होंने आत्मा जैसे किसी पदार्थ को मूल तत्त्वों में स्थान प्रदान नहीं किया, किन्तु इन भौतिक मूलतत्त्वों से ही आत्मा अथवा चैतन्य जैसी वस्तु की सृष्टि को स्वीकृत किया है। इस बात की विशेष संभावना है कि जब बाह्य दृष्टि का त्याग कर मनुष्यने विचार क्षेत्र में पदार्पण किया, तब इन्द्रिय ग्राह्य तत्त्वों को मौलिक तत्त्व न मान कर उसने असत्, सत् अथवा आकाश जैसे तत्त्वों को मौलिक तत्त्व के रूप में मान्य किया हो जो बुद्धिग्राह्य होने पर भी बाह्य थे। और यह भी संभव है कि उसने इस प्रकार के अतीन्द्रिय तत्त्वों से ही आत्मा की उपपत्ति की हो। ___ जब विचारक की दृष्टि बाह्य तत्त्वों से हटकर आत्माभिमुख हुई-अर्थात् जब वह विश्व के मूल को बाहर न देखकर अपने अन्तर में ही ढूंढ़ने लगा तब उसने प्राणतत्त्व को मौलिक मानना शुरु किया। इस प्राण तत्त्व के विचार से ही वह ब्रह्म अथवा आत्माद्वैत तक पहुँच गया । १ बृहदारण्यक ५. ५.१ २ छान्दोग्य ४. ३ छान्दोग्य ३. १९. १, तैत्तिरीय २. ७ ४ छान्दोग्य ६. २ ५ छान्दोग्य १.९.१; ७. १२ ६ छान्दोग्य १. ११.५, ४.३.३; ३. १५. ४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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