Book Title: Atmamimansa
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

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Page 10
________________ TONE १- आत्म-विचारणा Ca SE १८ प्रास्ताविक समस्त भारतीय दर्शनों का उत्थान और विकास एक आत्मतत्त्व को केन्द्र में रख कर ही हुआ है-ऐसा विधान संभव है। नास्तिक चार्वाक दर्शन के उपलब्ध सूत्रों का अनुशीलन भी इसमें बाधक नहीं। क्यों कि उनमें स्पष्ट रूप से चैतन्य का निषेध करना अभिप्रेत नहीं किन्तु चैतन्य के स्वरूप के विषय में विवाद उपस्थित किया गया है। चार्वाक को अनात्मवादी जो कहा जाता है उस का अर्थ इतना ही है कि वह आत्मा को मौलिक तत्त्व नहीं मानता। वह उस तत्त्व की उपपत्ति इतर दार्शनिकों से भिन्न रूप से करता है। इस दृष्टि से सोचा जाय तो भारतीय दर्शन के जिज्ञासु • के लिए आत्ममीमांसा को अवगत करना सर्वप्रथम आवश्यक है । इसी ध्येय को समक्ष रखते हुए यहाँ आत्ममीमांसा की आवश्यक बातों का संग्रह संक्षेप में तुलनात्मक दृष्टि से किया गया है। अस्तित्व जब हम किसी भी विषय में विचार करना प्रारंभ करते हैं तब सर्वप्रथम उस के अस्तित्व का प्रश्न विचारणीय होता है। तत्पश्चात् ही उसके स्वरूप का। अतएव यह आवश्यक है कि हम जीव के अस्तित्व के संबंध में भारतीय दर्शनों की विचारणा पर सर्वप्रथम दृष्टिपात कर लें। ब्राह्मणों एवं श्रमणों की बढ़ती हुई आध्यात्मिक प्रवृत्ति के कारण आत्मवाद के विरोधी लोगों का साहित्य सुरक्षित नहीं रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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