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सका। ब्राह्मणों ने अनात्मवादियों के संबंध में जो भी उल्लेख किए हैं वे केवल प्रासंगिक हैं और उनके आधार पर ही वैदिक काल से लेकर उपनिषत्काल तक की उनकी मान्यताओं के विषय में कल्पनाएँ की जा सकती हैं। उसके बाद हम जैन आगम और बौद्ध-त्रिपिटक के आधार पर यह मालूम कर सकते हैं कि भगवान् महावीर और बुद्ध के समय तक अनात्मवादियों की क्या मान्यताएँ थीं । दार्शनिक टीका ग्रंथों के प्रमाण से यह कहा जा सकता है। कि दार्शनिक सूत्रों के रचना काल में अनात्मवादियों ने अपनी मान्यताओं का प्रतिपादन बृहस्पतिसूत्र में किया, किंतु दुर्भाग्यवश वह मूल ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं है। ऐसी परिस्थिति में अनात्मवादियों से संबंध रखने वाली सामग्री का आधार मुख्यतः विरोधियों का साहित्य ही है । अतः उसका उपयोग करते समय विशेष सावधानी की आवश्यकता है क्योंकि विरोधियों द्वारा किए गए वर्णन में न्यून या अधिक मात्रा में एकाङ्गीपन की संभावना रहती ही है।
अनात्मवादी चार्वाक यह नहीं कहते कि 'आत्मा का सर्वथा श्रभाव है ' । किन्तु उनकी मान्यता का सार यह है कि जगत् के मूलभूत एक या अनेक जितने भी तत्त्व हैं, उनमें आत्मा कोई स्वतंत्र तत्त्व नहीं । दूसरे शब्दों में उन के मतानुसार आत्मा मौलिक तत्त्व नहीं है। इसी तथ्य को दृष्टिसन्मुख रखते हुए न्यायवार्तिककार उद्योतकर ने कहा है कि आत्मा के अस्तित्व के विषय में दार्शनिकों में सामान्यतः विवाद ही नहीं है । यदि विवाद है तो उसका संबंध आत्मा के विशेष स्वरूप से है । अर्थात् कोई शरीर को ही
त्मा मानता है, कोई बुद्धि को, कोई इन्द्रिय या मन को और कोई संघात को आत्मा समझता है । कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो इन सबसे पृथक् स्वतन्त्र आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं । "
न्यायवार्तिक पृ० ३६६ ।
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