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आत्मा के लिए प्रयुक्त होने वाले विविध नामों से भी आत्मविचारणा की उत्क्रान्ति के उपर्युक्त इतिहास का समर्थन होता है। आचारांग सूत्र में जीव के लिए भूत, प्राण जैसे शब्दों का प्रयोग आत्मविचारणा की उत्क्रान्ति का सूचक है।
है।
हमारे पास ऐसे साधन नहीं जिनसे यह ज्ञात हो सके कि इस उत्क्रान्ति में कितना समय लगा होगा। कारण यह है कि उपनिषदों में जिन विविध मतों का उल्लेख है, वे उसी काल में
आविर्भूत हुए ऐसा कथन शक्य नहीं। हां, हम यह मान सकते हैं कि इन मतों की परंपरा दीर्घ काल से चली आरही थी और उपनिषदों में उसका संग्रह कर दिया गया ।
उपनिषदों के आधार पर हमने यह देखा कि प्राचीन काल के अनात्मवादी जगत् के मूल में केवल किसी एक तत्त्व को ही मानते थे। हम उन्हें अद्वैतवाद की श्रेणी में रख सकते हैं और उनकी मान्यता को 'अनात्माद्वैत' का सार्थक नाम भी दे सकते हैं। क्योंकि उनके मतानुसार आत्मा को छोड़ कर अन्य कोई भी एक ही पदार्थ विश्व के मूल में विद्यमान है। यह कहा जा चुका है कि अनात्मद्वैत की इस परंपरा से ही क्रमशः आत्माद्वैत की मान्यता का विकास हुआ ।
प्राचीन जैन आगम, पालित्रिपिटक और सांख्य दर्शन आदि इस बात के साक्षी हैं कि दार्शनिक विचार की इस अद्वैत धारा के समानान्तर द्वैतधारा भी प्रवाहित थी। जैन बौद्ध और सांख्य दर्शन के मत में विश्व के मूल में केवल एक चेतन अथवा अचेतन तत्त्व नहीं अपितु चेतन एवं अचेतन ऐसे दो तत्त्व हैं। जैनों ने उन्हें जीव और अजीव का नाम दिया, सांख्यों ने पुरुष और प्रकृति कहा और बौद्धों ने नाम और रूप ।
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