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४/ अस्तेय दर्शन
हुई मशाल बुझ गई और क्रिया-काण्ड के खाली डंडे ही शिष्यों के हाथों में रह गये हैं। उनमें रोशनी नहीं है। वे खुद भी अंधकार में ठोकरें खा रहे हैं और उनके पीछे की भीड़ भी ठोकरें खा रही है।
उस मार्मिक संत की कही हुई बात जब हम पढ़ते हैं या सुनते हैं तो हमारे मन में भी यही विचार आता है कि वास्तव में समाज की स्थिति ऐसी ही बन गई है। आज अहिंसा और सत्य की मशालें हाथों में अवश्य हैं, किन्तु वे बुझी हुई मशालें हैं-खाली प्रकाशविहीन डंडे मात्र हैं। यही कारण है कि हमारे जीवन में कोई प्रगति नहीं हो रही है। आगे आने वाली प्रजा को कोई रोशनी नहीं मिल रही है और सब टक्करें खा रहे हैं।
समय-समय पर साधु-समुदाय एकत्र होता है और साधु समाचारी का निर्माण किया जाता है। लम्बे-चौडे वाद-विवाद होते हैं कि साधओं को जीवन में किस प्रकार चलना चाहिए और किस प्रकार नहीं चलना चाहिए। समाचारी बनाने के लिए समाज के अन्यतम सेवक के नाते मुझे भी उपस्थित होने का सौभाग्य प्राप्त होता है। मैंने देखा कि नियमोपनियमों की लम्बी चौड़ी धाराएँ बनाई जा रही हैं और सप्ताह के सप्ताह लगाये जा रहे हैं, तो कहना पड़ा कि नया शास्त्र कहाँ से तैयार कर रहे हैं ? आखिर हमें विरासत में जो प्राचीन शास्त्र मिले हैं, उनमें यह सब कुछ तो लिखा हुआ है। सचाई यह है कि आज समाचारी बनाने की नहीं, बल्कि उस पर चलने वालों की आवश्यकता है। शास्त्र तो पुकार रहे हैं कि सब हमारे अन्दर है। नयी कलमें नहीं बन. सकतीं । आचार और विचार की कौन सी बात शास्त्रों में मौजूद नहीं है ? परन्तु उन पर चलने वाले कहाँ हैं ? अगर चलने वाले हैं तो अकेला दशवैकालिक भी ऊँचाई पर पहुँचा देगा और आचारांग भी पहुँचा देगा।
तो असली बात विधान बनाने की नहीं, उस पर चलने की है। जो विधान पर हस्ताक्षर करते हैं, वही जब जीवन में लड़खड़ा जाते हैं तब स्वभावतः वह विचार होने लगता है कि चारित्र का जो बल अन्दर से आना चाहिए था, वह नहीं आ रहा है। जब अन्दर में ज्योति जागृत नहीं होती, तो बाहर के नियम कभी-कभी हमको दंभ की ओर ले जाते हैं, और वे अंधकार में और गहरा अंधकार करने को तैयार रहते हैं । ऐसी स्थिति में हम अपने जीवन के ही चारों ओर अंधकार नहीं करते, दूसरों को भी
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