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अस्तेय दर्शन /४७
नहीं थी वहाँ दी है। इस पर जैनधर्म की दृष्टि से विचार करना है कि वास्तव में यह क्या हुआ? यह लेन-देन और यह व्यवस्था किस रूप में है ? ___ मैं एक गंभीर बात आपसे कहना चाहता हूँ। मैं समझता हूँ कि जैनधर्म की दृष्टि से यह भी एक प्रकार की चोरी है। आप जरा चिंतन की गहराई में उतर कर विचार कीजिए कि यदि एक के अधिकार की वस्तु दूसरे को दे दी जाय तो वह अधिकार की चोरी हुई या नहीं ? अधिकार को छीनना हुआ या नहीं ?
एक व्यक्ति किसी पद का अधिकारी है, वह उसके योग्य भी है, अतः उसे वह पद मिलना ही चाहिए, किन्तु वह पद उसे न देकर यदि किसी दूसरे व्यक्ति को, जो उसका अधिकारी नहीं और उसके योग्य भी नहीं, दे दिया जाय तो शासक-वर्ग का यह कार्य क्या समझा जायगा? अधिकारी व्यक्ति सोचता है कि मेरे अधिकार को छीना गया है। और वास्तव में योग्य अधिकारी के अधिकार को छीन लेना चोरी ही का तो काम है।
साधुओं के लिए भी इसी प्रकार का एक वर्णन आया है। गृहस्थ के घर किसी बीमार के लिए पथ्य की कोई चीज बनी है। बीमार को उसकी बहुत ही आवश्यकता है। साधु उस गृहस्थ के घर जाता है और बीमार का ख्याल न करके, परिस्थिति का उचित विचार न करके, उस चीज को ले आता है, तो हमारी पुरानी और आध्यात्मिक भाषा, बड़े ही गंभीर और कठोर शब्दों में चुनौती देती है, और कहती है कि वह साधु चोरी करके लाया है। हाँ, यह दूसरी बात है कि साधु को वास्तविक स्थिति का पता न लगे और अनजान में वह वस्तु ले ली जाय ; लेकिन जान-बूझ कर, बालक, बूढ़े या रोगी की परवाह न रख कर यदि साधु ले आता है तो हमारे यहाँ वह चोरी मानी जाती है। एक के अधिकार की वस्तु उसे न लेने देकर खुद ले ली है तो यह अधिकार की चोरी ही है।
मान लीजिए, आपके पास एक पुस्तक है, बहुत सुन्दर और उपयोगी ! आप उसका दान करना चाहते हैं। आपके सामने एक उसके पढ़ने का अधिकारी है, विद्यार्थी या और कोई जिज्ञासु है, और वह उसे पढ़ कर अपना जीवन बना सकता है
और लाभ उठा सकता है ; किन्तु आप उसे न देकर किसी ऐसे मनुष्य को दे देते हैं, जो पढ़ा-लिखा नहीं है और उस पुस्तक की गंभीरता को समझ नहीं सकता है और जो उसे लेकर उसका दुरुपयोग करेगा, तो हम उस पुस्तक के दान को सही ज्ञानदान
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