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अस्तेय दर्शन / १२७
पुरानी परम्परा कितनी महत्त्वपूर्ण थी किं बुढ़ापा आ गया, शरीर अक्षम होने लगा, तो नयी पीढ़ी के लिए मार्ग खोल दिया - "आओ !अब तुम इसे संभालो, हम जाते हैं।" और संसार त्याग करके चल दिए। महाकवि कालिदास ने रघुवंशी राजाओं का वर्णन करते हुए कहा है -
शैशवें अभ्यस्त विद्यानां यौवने विषयैषिणाम् ।
वार्द्धक्य मुनि-वृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ॥ बचपन में विद्याओं का अभ्यास करते रहे, शास्त्रविद्या भी सीखी और शस्त्रविद्या भी। यौवन की चहल-पहल हुई, तो विवाह किया, गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। न्याय और नीति के आधार पर प्रजा का पालन किया। जब जवानी ढलने लगी, बुढ़ापे की छाया आने लगी तो यह नहीं, कि राजसिंहासन से चिपटे रहे, भोगों में फंसे रहे। राजसिंहासन अपने उत्तराधिकारी को सौंपा और मुनि-वृत्ति स्वीकार करके चल पड़े। गृह और राज्य से मुक्त होना ही मात्र उनका कोई ध्येय नहीं था। उस निवृत्ति के साथ ही आत्मा की प्रवृत्ति भी चालू थी। गृहत्याग करके आत्म ज्योति जगाने की साधना करने लगे, योग की उच्चतम भूमिका पर पहुँचने की साधना करने लगे और अन्त में योग-साधना करते-करते ही मन की परम समाधि और शांति के साथ देह को छोड़ दिया। कितना उच्च जीवन-दर्शन था, उस समय का । जीवन में भोग और योग का सुन्दर सामञ्जस्य उनके जीवन में हुआ था । जीयें जब तक सुख और आनन्द से जीयें, मरें तब भी आनन्द और समाधिपूर्वक । आज के जीवन के साथ उस जीवन की तुलना करता हूँ, तो सोचता हूँ, कितना अन्तर आ गया है ? आज मानव, जीतून भर हाय-हाय करते चलते हैं, पीड़ाओं और लालसाओं में कहीं भी क्षण भर का चैन नहीं है और अंतिम समय रोगों से घिर जाने पर भी जीने की लालसा नहीं छूटती । 'रोगेनान्ते तनुत्यजाम्' की जगह आज 'योगेनान्ते तनुत्यजाम्' का आदर्श हो रहा है। जीवन की स्थिति में कितना बड़ा परिवर्तन आ गया है ? जीवन के आधार और मानदंड कितने बदल गए हैं ?
मैं बतला रहा था, कि श्रेणिक भी-उस महान् आदर्श को भुला देता है। नये खून में उमंग होती है, आँधी और तूफान का वेग होता है; उसे रोका नहीं जा सकता, अच्छा या बुरा कोई न कोई रास्ता उसे बढ़ने के लिए चाहिए ही। कूणिक आगे बढ़ने का रास्ता खोजता है। वह प्रतीक्षा करते-करते अधीर हो जाता है। लालसाएँ उन्मत्त हो जाती हैं,
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