Book Title: Asteya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 150
________________ अस्तेय दर्शन / १३५ ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न हैं, इच्छा क्यों पूरी हो मन की । एक दूसरे से मिल न सके, यह बिडम्बना है, जीवन की ॥ तक ज्ञान और कर्म अलग-अलग दूर पड़े हैं, तब तक मानव मन की इच्छाएँ • कैसे पूरी होंगी? यह अलगाव बिडम्बना है, जीवन की । मानवता के सर्वांगीण विकास के लिए इस बिडम्बना से अपने को मुक्त करना आवश्यक है। Jain Education International हमारे भारतीय पुराणों में वर्णन है, कि समुद्र-मंथन के बाद प्राप्त हुए अमृत का बँटवारा होने लगा । देवताओं को अमृत बाँटा जा रहा था। राहु असुर था, उसको पता लग गया। उसने देवता का रूप धारण किया, और चुपके से देवताओं की पंक्ति में आकर बैठ गया। अमृत बँटते- बँटते पास आया, तो देवता के रूप में बैठे उसको भी अमृत मिल गया। राहु ने अमृत लेते ही तत्काल पीना शुरू कर दिया। इस पर चन्द्रमा ने आवाज लगाई, कि अरे यह तो देव नहीं मालूम पड़ता। क्योंकि दैवी संस्कृति की परम्परा है, कि पंक्ति में उपस्थित सबको क्रमश: भोजन परोस देने के बाद जब प्रार्थना की जाय कि भोजन करने की कृपा करें, तभी भोजन करना चाहिए। यह परम्परा नहीं है, कि एक को मिला, झट वह चट कर जाए, दूसरे को मिला बस वह चट कर । भोजन परोसने वाले पंक्ति के आखिर तक पहुँच भी न पाए कि पीछे से लाओ, लाओ की पुकार शुरू होने लगे। ऐसा नहीं होता है, श्रेष्ठ एवं उच्च संस्कृति में । क्योंकि यह दैवी नहीं है, दानवीय संस्कृति है। राहु दानव था, अतः उसे ज्यों ही अमृत मिला, झट पी गया । वह देवता नहीं है, यह उसकी संस्कृति से पता लग गया। परिणाम यह आया, कि वह पकड़ा गया और भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया। सिर अलग हो गया, धड़ अलग हो गया। अब क्या था, एक दैत्य के दो दैत्य बन गए। बिना धड़ का मस्तक राहु बन गया और सिर कटा धड़ केतु बन गया। जिस समाज का मस्तष्क और धड़ अलग हो जाता है, वह राहु और केतु बन जाता है, देव नहीं हो पाता है। आज के बुद्धिजीवियों के पास चिंतन के लिए मस्तक तो है, पर कर्म करने के लिए धड़ नहीं है, शरीर नहीं है। श्रमजीवियों के पास कर्म के लिए धड़ अर्थात् शरीर तो है, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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