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१३४ / अस्तेय दर्शन
रमा नहीं दिया जाता है, कर्म में रस आता नहीं है, आनन्द आता नहीं है। और जब - आनन्द न आए कर्म का फल पूरी तौर पर मिल नहीं पाता है। इस दृष्टि से तन के साथ मन को जोड़ना आवश्यक है.
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आज की स्थिति में मानव कर्म पथ पर जिस रूप में चल रहे हैं, वह मानवोचित नहीं है। बिना मन के कर्म भार हो गया है और भार ढोना पशु का काम है। भय से, लज्जा से, परिस्थितियों से, मजबूरी से तन को तो प्राप्त कर्मों में जोड़ देते हैं, लेकिन मन को बिल्कुल अलग रखते हैं। मन को उस कर्म के साथ जोड़ते नहीं हैं। इसका परिणाम यह है, कि कृतकर्म में जो ज्योति जलनी चाहिए, वह जल नहीं पाती। कृतकर्म में रस की जो धार बहनी चाहिए, वह रस की धार बहती नहीं है। सब का सब सूखा-सूखा-सा लगता है। निरानन्द, नीरस, निःस्वाद । न कर्म करने वाले व्यक्ति को कोई आनन्द मिलता है और न वह कर्म, जिस राष्ट्र के लिए, परिवार के लिए. समाज के लिए किया गया है, उस परिवार, समाज, राष्ट्र को ही कोई रस मिल पाता है । इसलिए भगवान् महावीर कहा करते थे, कि ज्ञान और कर्म का समन्वय होना चाहिए। आपके अच्छे कर्म में आपकी अच्छी चेतना मिल जानी चाहिए, और आपकी अच्छी चेतना में आपका अच्छा कर्म मिल जाना चाहिए। कर्म के क्षेत्र में जब तक यह भूमिका न आएगी, तब तक होने जैसा कुछ भी होना-जाना नहीं है ।
राष्ट्र का दुर्भाग्य है, कि यहाँ जो मनीषी हैं, मनीषी अर्थात् जो मननशील मन वाले हैं, जो बुद्धिजीवी हैं, वे उत्पादन एवं निर्माण के कार्य पथ से एक किनारे पर अलग पड़ गए हैं। उनके पास केवल मनन हैं, चिन्तन है, बुद्धि है। लेकिन कर्म के साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। वे एकांगी बन गए हैं। इसलिए उनका विकास हो तो कैसे हो ?
दूसरी ओर श्रमिक हैं, जो कर्म में लगे हुए हैं। उनके पास श्रम के लिए केवल तन है, किन्तु बौद्धिक चेतना नहीं है, मन नहीं है। अतः कर्म में प्राण पैदा करने जैसी उनमें कोई वृत्ति नहीं है। इस कारण उनका भी कोई विकास नहीं हो रहा है। जब तक मानव के यह तन और मन दोनों परस्पर मिलेंगे नहीं, तब तक न व्यक्ति का विकास हो सकेगा, न समाज का और न राष्ट्र का ।
जयशंकर प्रसाद ने इसी सन्दर्भ में कहा था
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