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१३२/ अस्तेय दर्शन
स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका में गए, तो एक साधारण संन्यासी की वेशभूषा में ही गए। लोगों ने उनसे कहा-"यह अमेरिका है, संसार की उच्च सभ्यता वाला देश है, आप जरा ठीक से कपड़े पहनिये।" ..
विवेकानन्द ने इसके उत्तर में कहा-"ठीक है, आपके यहाँ की संस्कृति दर्जियों की संस्कृति रही है, इसलिए आप उन्हीं के आधार पर वस्त्रों की काट-छाँट एवं बनावट के आधार पर ही सभ्यता का मूल्यांकन करते हैं । किन्तु जिस देश में मैंने जन्म लिया है, वहाँ की संस्कृति मनुष्य के निर्मल चरित्र एवं उच्च आदर्शों पर आधारित है। वहाँ जीवन में बाहरी तड़क-भड़क और दिखावे की प्रतिष्ठा नहीं है, बल्कि सादगी और सच्चाई की प्रतिष्ठा है।"
उपनिषद में एक कथा आती है, कि एक बार कुछ ऋषि एक देश की सीमा के बाहर-बाहर से ही कहीं दूर जा रहे थे। सम्राट को मालूम हुआ तो वह आया और पूछा-"आप लोग मेरे जनपद को छोड़कर क्यों जा रहे हैं ? मेरे देश में ऐसा क्या दोष
न मे स्तेनो जनपदे, न कदर्यो न मद्यपः
नानाहिताग्निर्ना विद्वान्, न स्वैरी स्वैरिणी कुतः ? मेरे देश में कोई चोर उचक्के नहीं हैं, कोई दुष्ट या कृपण मनुष्य नहीं रहते हैं, शराबी, चरित्रहीन, मूर्ख अनपढ़ भी मेरे देश में नहीं हैं, तो फिर क्या कारण है कि आप मेरे देश को यों ही छोड़कर आगे जा रहे हैं ?" _ मैं सोचता हूँ, भारतीय राष्ट्र की यह सच्ची तस्वीर है, जो उस युग में प्रतिष्ठा और सम्मान के साथ देखी जाती थी। जिस देश और राष्ट्र की संस्कृति, सभ्यता इतनी महान् होती है ; उसी की प्रतिष्ठा और महत्ता के मानदंड संसार में सदा आदर्श उपस्थित करते हैं । यही संस्कृति वह संस्कृति है, जो गरीबी और अमीरी दोनों में सदा प्रकाश देती है। महलों और झोंपड़ियों में निरन्तर प्रसन्नता बाँटती रहती हैं । आनन्द उछालती रहती है। जिस जीवन में इस संस्कृति के अंकुर पल्लवित-पुष्पित होते रहे हैं, हो रहे हैं वह जीवन संसार का आदर्श जीवन है, महान् जीवन है। फरवरी, १९६८
जैन भवन
आगरा
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