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१२६ / अस्तेय दर्शन
तुम्हें ?" तो उसने कहा, "महाराज ! लड़का अमेरिका गया था, वहाँ से एक नया नमूना लाया है, उसी नमूने का बनवा रहे हैं।"
बात यह है कि आवश्यकता तो नहीं है, पर एक नमूना आया है, नया है, वह नमूना तंग कर रहा है। उस नमूने का बंगला बनेगा, लोग देखने आएँगे, साथी और मित्र, नातेदार और रिश्तेदार वाह-वाह करेंगे। बस यह 'वाह-वाही' ही आज के मानव को तंग कर रही है। नया बंगला खड़ा हुआ है, तो उसके साथ प्रतिष्ठा का एक नया कीर्तिमान खड़ा हो गया।
संसार में बड़े-बड़े राजमहल बने हैं, किले बने हैं । जब बने तब युग की पूरी प्रतिष्ठा अपने में केन्द्रित करके सिर ऊँचा उठाये खड़े रहे, पर काल की आँधी चली, तूफान आए और महल मिट्टी में मिल गए, किले खंडहर बन गए।
कुछ सिंहासनों की होड़ में आगे बढ़े, साम्राज्य विस्तार की लालसा में बेपनाह बहते गए । साम्राज्य को ही उन्होंने अपनी अमर प्रतिष्ठा का कीर्ति स्तम्भ बनाना चाहा, पर यह उनकी बेवकूफी ही निकली। आज उनके साम्राज्यों का कोई नामोनिशान नहीं रहा। उनके स्वर्णसिंहासन बहुत जल्दी समाप्त हो गए । इतिहास के पृष्ठों पर कहीं उनके लिए दो शब्द की जगह भी नहीं रही। सिंहासन की होड़ :
मैं देखता हूँ, सिंहासनों की होड़ में मनुष्य अन्धा होकर चला है । राजगृह में चातुर्मास किया था मैंने, वहाँ का इतिहास भी पढ़ा है। सम्राट अजातशत्रु बड़ा ही महत्त्वाकांक्षी सम्राट हो गया है। युवावस्था में प्रवेश करते ही उसकी असीम महत्त्वाकांक्षाएँ सुरसा की भाँति विराट रूप धारण कर लेती हैं। सोचता है-"बाप बूढ़ा हो गया है। चलता-चलता जीवन के किनारे पहुँच गया है। अभी तक तो सिंहासन मुझे कभी का मिल जाना चाहिए था। मैं अभी युवक हूँ, भुजाओं में भी बल है। बुढ़ापे में साम्राज्य मिलेगा तो क्या लाभ ? कैसे राज्य विस्तार कर सकूँगा?" कैसे साम्राज्य का आनन्द उठा सकूँगा?" बस, वह राज्य के लिए बाप को मारने की योजना बनाता है। सिंहासन के सामने पिता के जीवन का कोई मूल्य नहीं रह जाता है।
श्रेणिक भी बूढ़ा हो गया है, पर मरना तो किसी के हाथ की बात नहीं । गृहस्थाश्रम त्याग उसने किया नहीं । कभी-कभी सोचा करता हूँ, कि भारत की यह
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