Book Title: Asteya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 140
________________ अस्तेय दर्शन / १२५ है। आज समाज और राज्य ने प्रतिष्ठा का आधार बदल दिया है, मनुष्य के दृष्टिकोण को बदल दिया है। आज की संस्कृति और सभ्यता धन और सत्ता पर केन्द्रित हो गई है। इसलिए मनुष्य की प्रतिष्ठा का आधार भी धन और सत्ता बन गए हैं। धन और सत्ता बदलती रहती है, हस्तान्तरित होती रहती है, इसलिए प्रतिष्ठा भी बदलती रहती है। आज जिसके पास सोने का अम्बार लगा है, या कहना चाहिए नोटों का ढेर लगा है, जिसके हाथ में सत्ता है, शासन है, वह चरित्रहीन और दुराचारी होगा, तो भी उसे सम्मान और प्रतिष्ठा मिलती रहेगी, समाज उसकी जय-जयकार करता रहेगा, सैकड़ों लोग उसकी कुर्सी की परिक्रमा करते रहेंगे। चूंकि सारी प्रतिष्ठा उसकी तिजोरी में बन्द हो गई है, या कुर्सी के चारों पैरों के नीचे दुबकी बैठी है। यह आधार स्थायी नहीं है और सही भी नहीं है । सत्ता और सम्पत्ति : धन और सत्ता के आधार पर प्राप्त होने वाली प्रतिष्ठा कभी स्थायी नहीं होती । वह इन्द्रधनुष की तरह एक बार अपनी रंगीन छटा से संसार को मुग्ध भले ही कर ले, किन्तु कुछ काल के बाद उसका कोई अस्तित्व आसमान और धरती के किसी कोने में नहीं मिल सकता। यदि धन को स्थायी प्रतिष्ठा मिली होती, तो आज संसार में धन कुबेरों के मंदिर बने मिलते। उनकी पूजा होती रहती । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती और रावण जैसों की मालाएँ फेरी जातीं । जरासंध और दुर्योधन को संसार आदर्श पुरुष मानता । जिनकी सोने की नगरी थी, जिनके पास अपार शक्ति थी, सत्ता थी, अपने युग में उन्हें प्रतिष्ठा भी मिली थी, ख्याति भी मिली थी। पर याद रखिए, प्रतिष्ठा और ख्याति मिलनी दूसरी बात है, श्रद्धा मिलना कुछ और है। जन - श्रद्धा उसे मिलती है, जिसके पास आत्म-श्रद्धा होती है, चरित्र होता है। ख्याति, प्रशंसा और प्रतिष्ठा क्रूरता से भी मिल सकती है, मिली भी है, पर युग के साथ उनकी ख्याति के बुलबुले भी समाप्त हो गए, उनकी प्रतिष्ठा आज खंडहरों में सोयी पड़ी है। मनुष्य के मन की यह सबसे बड़ी दुर्बलता है, कि वह इस बाह्य प्रतिष्ठा के बहाव में अंधा होकर बहता चला जा रहा है। एक बार मैं एक शहर में गया। एक सेठ का बगला बन रहा था। मैंने पूछा - "यह क्या शुरू किया है ? पहले भी तो बहुत बंगले पड़े हैं। फिर इस नये का क्या करना है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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