Book Title: Asteya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 144
________________ अस्तेय दर्शन / १२९ मुझे सेठ जी के तत्त्वज्ञान पर जरा हँसी आ गई। मैंने कहा-"तब तो आप घर के काम भी नहीं करते होंगे? वे भी तो बन्धन के हेतु हैं । स्वर्ग के नहीं, नरक के। क्या आपने वह सब कुछ छोड़ दिया है ? और आपकी तरह यदि तीर्थंकर भी सोच लेते, तो किसी को दानादि का उपदेश भी नहीं देते, सारे संसार को, संथारा पचखा देते। देने से पुण्य ही हो, ऐसा कुछ नहीं है। आप निष्काम भाव से दीजिए। न फल की आकांक्षा हो, न यश और न नाम की ! बंधन तो तब होता है, जब आप उसके साथ अपनी कामना को जोड़ देते हैं । कामना का त्याग किया जाता है, कर्म का त्याग नहीं किया जाता । कर्म का त्याग किया जाए, तो संसार में बड़ी अव्यवस्था और गड़बड़ी फैल जाएगी। कर्म छोड़ देने से ही कोई अकर्म नहीं हो जाता। अकर्म होता है, कर्म में से कामना को निकाल देने से।" वास्तव में बंधन है, तो मन से है। शरीर तो जड़ है, इससे क्या बंधन होगा? किसी को डंडा मारा तो डंडे को पाप का बंध थोड़ा ही होगा और किसी भूखे को रोटी दी तो क्या रोटी को पुण्य होगा, कि उसका शरीर भूखे के काम में आ रहा है ? डंडा और रोटी तो जड़ हैं, उनके पास न चिन्तन है, न संकल्प है। पाप-पुण्य चित्त की वृत्तियों में होता है, शरीर की प्रवृत्तियों में नहीं होता, चित्त की वृत्तियाँ यदि निष्काम हैं, फल की इच्छा नहीं है, तो फिर उसमें से फल उत्पन्न ही नहीं होगा, न स्वर्ग और न नरक ! जब कर्म में से कामना समाप्त हो जाती है तो इहलोगासंसप्पाओगे। परलोगासंसप्पाओगे।। न इस लोक की कोई अभिलाषा होती है, न परलोक के सुखों की कोई लालसा होती है, और फिर इसी अकर्मरूप कर्म की निष्पत्ति में ही मुक्ति का जन्म होता है। मोक्ष का द्वार सामने खुल जाता है। __ मैं कह रहा था, आपसे कि कणिक की उद्दाम लालसाओं में एक ज्वार उठा तो वह समय का इन्तजार नहीं कर सका, कि बाप अब कितने दिन का है ? और यदि हो भी तो क्या है, आखिर तो राज्य का उत्तराधिकारी वही है। बाप की भी आकांक्षाएँ पूरी होने दी जाएँ। वह भी आराम से, और शांति से परलोक की यात्रा करे। मन के कोने में कोई इच्छा दबी हुई है, कोई लालसा दुबक कर बैठी है, तो उसे भी पूरी कर ले। आखिर, अंतिम समय में तो मनुष्य कोई इच्छा या संघर्ष मन में लिए न मरे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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