Book Title: Asteya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 101
________________ ८६ / अस्तेय दर्शन I नहीं जानते, कि उनके पूर्वज-परिस्थिति पूजक नहीं थे। परम्परागत रीति रिवाजों में उन्होंने परिस्थिति के अनुसार सुधार किये थे । यदि आदिदे-युग के रीति-रिवाजों में परिवर्तन न हुआ होता, और वे अक्षुण्ण बने रहते, तो देश में आज भी वही विवाह-प्रथा प्रचलित होती जो ऋषभ -युग से पूर्व थी। समय के निर्बाध प्रवाह में बहते हुए समाज ने कई करवटें बदली हैं। यह सब परिवर्तन करने वाले आपके पूर्वज ही तो थे। क्योंकि वे जानते थे, कि सामयिक परिवर्तन के बिना समाज नहीं टिक सकता । आप अपने व्यक्तिगत जीवन को ही लीजिए, उसमें अब तक कितना परिवर्तन आ चुका है। क्या आज आपकी वेश-भूषा वही है, जो आपके पूर्वजों की थी ? आपका आहार-विहार और आपका व्यापार क्या पूर्वजों के समान ही है ? क्या आप अब भी वहीं रहते हैं, जहाँ आपके पूर्वज रहते थे ? यदि इन सब बातों में परिवर्तन कर लेने पर भी आप अपने पूर्वजों की गणना नहीं कर रहे हैं और आस्था बनाए रखते हैं, तो सामाजिक परिवर्तन कर लेने पर वह आस्था क्यों नहीं रहेगी ? सत्य तो यह है कि यदि आप पूर्वजों के प्रति श्रद्धाशील हैं तो आप भी उनके चरण चिन्हों का अनुसरण कीजिए। जिस प्रकार उन्होंने सामयिक समाज में परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तन करके उसे नव-जीवन दिया, उसी प्रकार आपको भी समाज में छाए हुए विकारों को दूर करके अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देना चाहिए। वह पुत्र किस काम का है, जो अपने पूर्वजों की प्रशंसा के पुल तो बाँधता है, पर जीवन में उनके अच्छे कार्यों का अनुकरण नहीं करता । सपूत तो वही है, जो पूर्वजों की भाँति आगे बढ़कर समाज की कुरीतियों का सुधार करता है। आज सारे देश को इसी मनोवृत्ति ने दबा रखा है, कि दूसरे तैयार करें तो हम भी खा लें, दूसरे सड़क बना दें तो हम भी चल पड़ें और दूसरे वस्त्र निर्माण करें तो हम भी पहन लिया करें। पर वे स्वयं कोई पुरुषार्थ करना नहीं चाहते, जीवन के संघर्षों से टक्कर लेना नहीं चाहते। सभी एक दूसरे का मुँह ताकते हैं, पर आगे बढ़ कर कार्य करते बहुत कम हैं । समाज-सुधारक का कर्त्तव्य : समाज-सुधार के लिए नेतृत्व ग्रहण करने वाला व्यक्ति जब त सम्मान पाने और अपमान से बचने का भाव नहीं त्याग देता, तब तक समाज उत्थान के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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