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९८ / अस्तेय दर्शन स्वराज्य में वर्ग होते हैं, भेद भी होते हैं, वर्ग और सीमाएँ समाप्त नहीं होतीं, किन्तु जनता उन वर्गों में रहकर भी वर्ग-भेद अनुभव नहीं करती, बँटी नहीं होती। जिस प्रकार आम के एक महावृक्ष की टहनियाँ पत्ते, फूल, फल आदि का वर्ण व रूप भिन्न-भिन्न होते हुए भी आम्रत्व सबके भीतर एक समान परिव्याप्त रहता है। उसी प्रकार हम सब जो प्रान्त, भाषा आदि के रंग-रूप में भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं, किन्तु राष्ट्रीय भाव का अखण्ड आम्रत्व सबके भीतर परिव्याप्त होना चाहिए। एक राष्ट्रीय चेतना की विराट् अनुभूति ही स्वराज्य की मूल भूमिका है। स्वार्थ और परमार्थ :
मैं स्वार्थ और परमार्थ में कोई विशेष अन्तर नहीं समझता । एक व्यक्ति का सीमित हित, एक व्यक्ति की सीमित आकांक्षा और सबका हित, सबकी आकांक्षा परमार्थ है। एक का स्वार्थ जब सबके लिए समर्पित होता है, राष्ट्रीय भाव से ओत-प्रोत होता है, उसके भीतर विराट मानवीय चेतनाजागृत होती है तो, वह स्वार्थ निश्चित ही परमार्थ हो जाता है। दर्शन की भाषा में कहा जाए तो एक के स्वार्थ में सबका स्वार्थ
और सबके स्वार्थ में एक का स्वार्थ जब अन्योन्याश्रित रूप से समाहित होता है, तब वही परमार्थ हो जाता है।
स्वराज्य से सुराज्य की भूमिका स्वार्थ को परमार्थ में बदलने की भूमिका है। व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए झगड़ना और उनको सर्वोपरि महत्त्व देना स्व-राज्य और सुराज्य दोनों के लिए घातक है। मेरे विचार में रामराज्य की कल्पना साकार करने के लिए स्व-राज्य के साथ सुराज्य की कल्पना को पहले साकार करना होगा। और वह व्यक्तिगत हितों, स्वार्थों और आकांक्षाओं का बलिदान किए बिना कदापि सम्भव नहीं
रामराज्य का चित्र :
मैंने बताया आपसे कि रामराज्य की एक परिभाषा कभी नहीं बन सकी। प्रत्येक युग में इस कल्पना का रूप कुछ बदलता-सा रहा है। फिर भी मूलभूत बात एक ही है, वह यह कि राष्ट्र का जीवन निर्मल हो, स्वच्छ हो । समाज का चरित्र ऊँचा हो, व्यक्ति-व्यक्ति मानवता के भव्य शिखरों पर विचरण करें, समष्टि के व्यापक हित में चिन्तन हो, चिन्तन के साथ कर्म हो।
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