Book Title: Asteya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 132
________________ अस्तेय दर्शन / ११७ तुम्हारे भीतर भी है। भगवान् महावीर ने कहा है कि यदि तुम्हारे सामने कोई आता है, जो तुम उसकी आत्मा को देखो। उसे जागृत करने का प्रयत्न करो। उसके नाम, रूप आदि में मत उलझो। तुम आत्मवादी हो, तो आत्मा को देखो। शरीर को देखना, नाम, रूप एवं जाति को देखना, शरीरवादी या भौतिकवादी दृष्टि है। आत्मवादी इन प्रपंचों में नहीं उलझता है, उसकी दृष्टि में तेज होता है। अतः वह सूक्ष्म से सूक्ष्म स्वरूप को ग्रहण करता है, स्थूल पर उसकी दृष्टि नहीं अटकती। वह सूक्ष्म तत्त्व को पहचानता है और उसी का सम्मान करता है। जाति नहीं, चरिन्न ऊँचा है : __ जैन-धर्म शरीरवादियों का धर्म नहीं है। यदि अष्टावक्र ऋषि के शब्दों में कहा जाय, तो वह चर्मवादी-धर्म नहीं है। वह शरीर, जाति या वंश के भौतिक आधार पर चलने वाला पोला धर्म नहीं है। अध्यात्म की ठोस भूमिका पर खड़ा है। वह यह नहीं देखता कि कौन भंगी है, कौन चमार है और कौन आज किस कर्म तथा किस व्यवसाय में जुड़ा हुआ है ? वह तो व्यक्ति के चरित्र को देखता है, पुरुषार्थ को देखता है, और देखता है, उसकी आत्म-पवित्रता को । श्रेष्ठता और पवित्रता का आधार जाति नहीं है, बल्कि मनुष्य का अपना कर्म है, अपना आचरण है। कर्म से ही व्यक्ति ब्राह्मण होता है और कर्म से ही क्षत्रिय । वैश्य और शूद्र भी कर्म के आधार पर ही होता है। संसार में कर्म की प्रधानता है। समाज के वर्ण और आश्रम कर्म के आधार पर ही विभक्त हैं। इसमें जाति कोई कारण नहीं है। मनुष्य की तेजस्विता और पवित्रता उसके तप और सदाचार पर टिकी हुई है, न कि जाति पर । मनुष्य अपने कर्म के द्वारा ऊँचा होता है और कर्म के द्वारा ही पतित होता है। समाज और देश में उस युग में जातिवाद और वर्गवाद का, जो एक कांटों का घेरा खड़ा हो गया था, उसे जैन-धर्म ने तोड़ने की कोशिश की। मनुष्य-मनुष्य, और आत्मा-आत्मा के बीच समता एवं समरसता का भाव प्रतिष्ठित करने का प्रबल प्रयत्न किया। यही कारण है कि भगवान महावीर जातिहीन भारतीय जन-जीवन को एक ही मानते थे। वर्ण व्यवस्था का मूल रूप : हिंसा के दो प्रकार हैं । प्रत्यक्ष हिंसा और परोक्ष हिंसा। प्रत्यक्ष हिंसा मनुष्य की समझ में जल्दी आ जाती है। एक इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर पाँच इन्द्रिय वाले जीवों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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