Book Title: Asteya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 131
________________ | जाति-विहीन भारतीय जन-जीवन एक है जैन-धर्म एक अध्यात्मवादी धर्म है। उसकी सूक्ष्म दृष्टि मानव-आत्मा पर टिकी हुई है । वह दृष्टि मनुष्य के शरीर, इन्द्रिय, बाह्य-वेष, लिंग, वंश और जाति-इन सबकी दीवारों को भेदती हुई सूक्ष्म आत्मा को ग्रहण करती है। वह आत्मा की बात करता है, आत्मा की भाषा बोलता है। सुख-दुःख के विकल्प, उच्चता-नीचता के मापदण्ड और यहाँ तक की लोक-परलोक की चिन्ता से परे वह शुद्ध अध्यात्म की बात करता है। इसका मतलब यह है कि संसार के जितने भी बाह्य विकल्प हैं-ऊँच-नीच के. चाहे वे जाति की दृष्टि से हो, चाहे धन की दृष्टि से हों, चाहे शासन अधिकार की दृष्टि से हों अथवा अन्य किसी दृष्टि से हों, वहाँ ये विकल्प तुच्छ पड़ जाते हैं । ये सब धारणाएँ उनकी दृष्टि से निष्प्राण, निर्माल्य एवं पूर्ण निरर्थक है। आत्मा के साथ इन धारणाओं का कहीं कोई मेल नहीं बैठता । भले ही पश्चात्वर्ती व्यक्तियों ने कुछ ब्लैकमेल किया हो, किन्तु जैन-धर्म के महान् उद्गाता भगवान् महावीर के वचनों का जो महाप्रकाश हमें मिला है, उसके आलोक में देखने से पता चलता है कि जैन-धर्म का शुद्ध रूप आत्मा को छूता है । जाति, सम्प्रदाय, वंश और लिंग का ब्लैकमेल सांठ-गाँठ करने वाले, जैन-धर्म की आत्मा के साथ अन्याय कर रहे हैं। सब में समान आत्मा है : भगवान महावीर ने जो उपदेश दिया, अपने जीवन में जो विलक्षण कार्य किये, वे इस बात के साक्षी हैं कि जैन-धर्म का संदेश आत्मा को जगाने का संदेश है। उसकी दृष्टि में राजा और रंक की आत्मा में कोई भेद नहीं है । उसके समक्ष जितने आत्म-गौरव के साथ एक कुलीन ब्राह्मण आ सकता है, उतने ही गौरव के साथ एक नीच और अन्त्यज कहा जाने वाला शूद्र-चाण्डाल भी आ सकता है । वह यदि ब्राह्मणकुमार इन्द्रभूति गौतम का स्वागत करता है, तो स्वपाक पुत्र हरीकेशीबल और, चाण्डाल सुत महर्षि मेतार्य का भी उसी भाव और श्रद्धा के साथ स्वागत, सम्मान एवं आदर करता है। आत्मा किसी भी परिस्थिति में चल रही हो, किसी नाम रूप और जाति की सीमाओं में खड़ी हो, पर उसमें भी यही आत्म-ज्योति जल रही होती है, जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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