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११८ / अस्तेय दर्शन
तक हिंसा कब और कैसे हुई, इसका आसानी से पता चल सकता है। किन्तु परोक्ष हिंसा का रूप बहुत सूक्ष्म, व्यापक और दुरूह है। उस ओर पूरा ध्यान भी नहीं जाता । परोक्ष हिंसा की गहराई को समझना अत्यन्त आवश्यक है। परोक्ष हिंसा को हम सामाजिक हिंसा कह सकते हैं, जिसमें जीवों की हत्या नहीं होती, परन्तु सामाजिकता के वातावरण में व्यवधान पैदा होता है। सामाजिक हिंसा एक नया शब्द प्रतीत होता है। किन्तु हिंसा के विविध रूप हैं और अलग-अलग अगणित प्रकार हैं। हम ज्यों-ज्यों गहराई से चिन्तन करेंगे, त्यों-त्यों हिंसा-अहिंसा के सूक्ष्म एवं व्यापक रूप प्रकट होते जायेंगे ।
समाज और सामाजिक जीवन क्या है ? समाज कैसे बना है? जमीन के टुकड़ों को समाज नहीं कहते, मकानों, ईंटों या पत्थरों का ढेर भी समाज नहीं कहलाता । गली, कूंचे, सड़क आदि का नाम भी समाज नहीं है। समाज एक-एक व्यक्ति का सम्मिलित समुदाय है। उसे मानव समुदाय कह सकते हैं। उस मानव समुदाय में आपसी व्यवहार कैसा हो, आपसी सम्बन्ध मधुर हों या नहीं, एक जाति का दूसरी * जाति के साथ, एक वर्ग का दूसरे वर्ग के साथ, एक गाँव का दूसरे गाँव के साथ कहीं घृणा और द्वेष का सम्बन्ध तो नहीं चल रहा । इस प्रकार की सामूहिक या समूह - विशेष के प्रति चल रही घृणा सामाजिक हिंसा कहलायेगी ।
जातिवाद :
विश्व के जितने भी मनुष्य हैं, वे सभी मूलत: एक हैं। कोई भी जाति अथवा कोई भी वर्ग मनुष्य जाति की मौलिक एकता को भंग नहीं कर सकता। आज मनुष्य जाति में जो अलग-अलग वर्ग दिखलाई देते हैं, वे बहुत कुछ कार्यों के भेद से या धंधों के भेद से बने हैं। यदि उन धंधों के आधार से बने हुए वर्ग आपस में टकराने लगें या संघर्ष करने लगें तो वह अहिंसा की परिधि से बाहर चला जायेगा। समाज बदलता है, युग बदलता है, परिस्थिति बदलती है। इसलिए आज जातिवाद का सारा आधार भी बदल गया है। आज सहस्र खंडों में विभाजित मानव जाति पुनः एकता के सूत्र में बंधना चाहती है; इसलिए हम यह गौरव के साथ कह सकते हैं कि आज का मानव अहिंसा की ओर प्रगति करना चाहता है।
वर्ण-व्यवस्था समाज के टुकड़े-टुकड़े करने के लिए नहीं, बल्कि उसमें सुव्यवस्था कायम करने के लिए बनायी गई थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन
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