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१२२ / अस्तेय दर्शन
दिया कि अमुक का छुआ खा लेने से धर्म चला जाता है। एक ओर तो भारतीय संस्कृति अद्वैत की उपासना करती है। बड़े-बड़े आचार्य, वेदांत-शास्त्रियों के माध्यम से जनता के सामने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं कि ब्रह्म एक है और हमें जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह सब ब्रह्म का ही रूप है। लेकिन दूसरी तरफ हम ब्रह्म के ही रूप का, जब वह रूप शूद्र या नीच जाति का बाना पहन कर आता है, तब हम उससे घृणा करते हैं । वेदांत तो कहता है कि पानी से भरे हजारों घड़े रखे हैं। उनमें कुछ सोने के हैं . कुछ चाँदी के हैं, कुछ दूसरी धातुओं के हैं । परन्तु उन सब में भी चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब तो एक समान ही पड़ता है। इसी प्रकार संसार के सभी पदार्थों में ब्रह्म का ही प्रतिबिम्ब झलकता है।
हमारे कुछ प्रगतिशील विचारक-गण जब कभी धर्म-सम्बन्धी बातें सुनते हैं और उमंग के साथ मानव-संस्कृति पर विचार-विनिमय करते हैं, तब ऐसा मालूम पड़ता है कि सच्चा ब्रह्म-ज्ञान उन्हीं को मिल गया है। किन्तु जब खान-पान की बात सामने आती है, तब उनका ब्रह्म-ज्ञान न जाने कौन-सी कन्दरा में छुप जाता है। इस प्रकार एक वर्ग से दूसरे वर्ग या एक समूह से दूसरे समूह के प्रति घृणा प्रदर्शित की जाती है, तो वह सामाजिक हिंसा होती है। जहरीले कीटाणु :
अपनी गलतियों को, चाहे वह एक हो या एक हजार, सबके सामने हमें स्वीकार कर लेना चाहिए। जातिवाद को दिया जाने वाला प्रोत्साहन अनुचित है। और इसलिए पीढ़ियों से होने वाली अपनी इस गलती को हम स्वीकार करलें और उसे सुधारने की कोशिश करें यही हमारा कर्तव्य है। क्योंकि जातिवाद ने हमारे समाज को छोटे-छोटे कटघरों में बाँधा है। अगर हम इस बिखरे हुए एवं टूटे हुए समाज को फिर से.अखंड बनाना चाहते हैं तो हमें उसके लिए कुछ न कुछ त्याग करना ही पड़ेगा। जातिवाद का प्रश्न भूत बनकर आज सारे समाज को तंग कर रहा है। इसलिए वर्ण-व्यवस्था के सिद्धान्त को समझते हुए भी हमें आज तो जातिवाद का निरसन करना ही होगा। क्योंकि जब तक जातिवाद के जहरीले कीटाणु समाज में फैले हुए रहेंगे, तब तक मानतता चिर-सुरक्षित नहीं रह सकती।
एक ओर जब हम सांस्कृतिक सौहार्द्र का दृष्टिकोण बनाने जा रहे हैं तो दूसरी
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