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अस्तेय दर्शन' | ११५ करे । यदि आरम्भ कर दिया है, उसकी दूसरी बुद्धिमता इसी में है, कि वह उसे पूरा करे। विघ्नों के भय से कोई भी अच्छा कार्य प्रारम्भ न करना, मैं बुद्धिमत्ता नहीं मानता। यों ही बेकार जीवन का क्या अर्थ है। अतः प्रारम्भ किए हुए कार्य को पूरा करना ही बुद्धिमान होने का प्रधान लक्षण है। वास्तव में बुद्धिमान वह है, जो अपने दायित्व को, अपने कर्तव्य को जीवन के अन्तिम क्षण तक निभाता है।
मैं आपसे कह रहा था, कि जड़ में चेतना का अभाव है, अतः वह यह नहीं जान सकता, कि उसके प्रति आपका व्यवहार कैसा है ? हिताहित को जानने, समझने और अनुभव करने की क्षमता चेतन में ही है। इसलिए हिंसा और अहिंसा का सम्बन्ध चेतन से है, जड़ से नहीं। यदि आप किसी व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, तो झट से वह आपको उत्तर देता है। वह तुरन्त ही प्रतिशोध लेने को तैयार हो जाता है। यदि कभी परिस्थितिवश तुरन्त बदला न भी ले सके, तो वह उस भावना को स्मृति-कोष जमा कर लेता है, और समय आने पर बदला ले लेता है । इस जन्म में न ले सका, तो जन्मान्तर में प्रतिशोध लेता है। इसलिए भगवान् महावीर ने कहा, कि वैर से कभी भी वैर समाप्त नहीं होता, हिंसा से हिंसा का दानावल कभी नहीं बुझ सकता। यह अच्छी तरह ध्यान में रखिए, कि जो कार्य आपके लिए अनुकूल नहीं है, वह दूसरे के लिए भी अनुकूल नहीं हो सकता। इसलिए साधक को चाहिए, कि वह किसी के प्रति दुर्व्यवहार न करे। सबके साथ प्रेम, स्नेह, एवं मित्रता का मधुर व्यवहार करे। किसी से भी घृणा न करे । घृणा और तिरस्कार के भावों को प्रेम-स्नेह और सद्भावना में बदलना ही अहिंसा है, और यह अहिंसा की विशुद्ध भावना ही साधना का मूल है। सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना का भव्य-भवन का आधार स्तम्भ या नींव अहिंसा है। इसलिए इसे जीवन में साकार रूप देना परम आनन्द को प्राप्त करना है।
पूर्वभारत, जैन भवन, राजगृह अक्टूबर, १९७५
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