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अस्तेय दर्शन / ११३
सम्यक्त्व के पाँच लक्षणों में से अनुकम्पा, दया या करुणा भी एक लक्षण है। अस्तु, नहीं मारना मात्र अहिंसा नहीं है, प्रत्युत ताप से संतप्त एवं दुःख से उत्पीड़ित के संताप और उत्पीड़न को दूर करने का शुभ संकल्प एवं प्रयत्न करना भी अहिंसा है। किसी प्राणी को नहीं मारना, अहिंसा का निषेधात्मक पक्ष है, तो मरते हुए प्राणी की रक्षा करना, यह उसका विधेयात्मक पहलू है ।
बात यह है कि. अशुभ भाव से की गई प्रवृत्ति हिंसा है और शुभ एवं प्रशस्त भाव से की गई प्रवृत्ति अहिंसा है। किसी भी कार्य के लिए की गई प्रवृत्ति क्रिया है। और, शुभाशुभ भाव जन्य क्रिया से शुभ अशुभ कर्म आएँगे ही। कोई भी क्रिया हो, उसमें कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में बाह्य आरम्भ होता ही है। अतः हिंसा और अहिंसा का सम्बन्ध बाह्य क्रिया मात्र से नहीं, प्रत्युत मनुष्य के मन में तरंगित होने वाले शुभाशुभ भावों पर आधारित है।
हिंसा की भावना व्यक्ति की विकारी भावना है । वह आत्मा का स्वभाव नहीं विभाव है। विभाव के वशीभूत हो जाने से व्यक्ति अपने स्वभाव को भूल गया है। यों भी कह सकते हैं, कि वह विकारों के रोग से पीड़ित है । भगवान महावीर ने आध्यात्मिक दृष्टि से विकार एवं वासनाओं से पीड़ित व्यक्ति को रोगी कहा है। रोगी घृणा का नहीं दया का पात्र है। क्योंकि रोगी के रोग को दूर करने के लिए उसके प्रति घृणा एवं तिरष्कार नहीं सहानुभूति और स्नेह आवश्यक है। इसी दृष्टि से भगवान महावीर ने कहा था, पापी से घृणा न करो, पाप से करो। हेय व्यक्ति नहीं है, पाप है। अतः पापी का भी स्नेहपूर्वक सुधार करो। एक बार एक जैन बहन दर्शन करने आई। वह नर्स का काम कर रही थी। बातचीत के दौरान मैंने उससे पूछा, कि नर्स के कार्य में आपको कैसी अनुभूति होती है ? उसने एक बहुत बड़ी बात कहीं कि नर्स का कार्य भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह एक बहुत बड़ी साधना है। साधकों द्वारा विकारों को जीतने का जो कार्य किया जाता है, उससे भी बड़ा और दायित्वपूर्ण कार्य हमारा है। हमें घर, परिवार और मित्रों के मधुर वातावरण को छोड़कर रोगियों के मध्य में रहकर उनकी सेवा करनी होती है, उन्हें सब तरह से रोग मुक्त और स्वस्थ करना होता है। विभिन्न प्रकार की गन्दी बीमारियाँ व्यक्ति को आ घेरती हैं । सामान्य व्यक्ति को यह देखकर रोगी के प्रति घृणा एवं नफरत होती है। बीमार आखिर, बीमार है। बीमारी के कारण उसका स्वभाव प्रायः चिड़चिड़ा हो जाता है। कभी-कभी वह इतना अ. हो जाता
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