Book Title: Asteya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 126
________________ हिंसा-अहिंसा विवेक-सूत्र मनुष्य के सामने एक विराट और विशाल जगत फैला हुआ है। वह अनन्त चेतन प्राणियों से परिपूर्ण है, और अनन्त-अनन्त जड़ पदार्थों से भी परिपूरित है। मनुष्य का जीवन जड़ पदार्थों से भी प्रतिदिन ही नहीं, प्रतिक्षण होता है और चेतन प्राणियों से भी। जीवन का कोई भी क्षण ऐसा नहीं जाता, कि मनुष्य का किसी के साथ सम्पर्क सूत्रन जुड़ता हो। परन्तु मनुष्य जड़ के साथ जो व्यवहार करता है-वह अच्छा है या बुरा है, अनुकूल है या प्रतिकूल है, हितप्रद है या अहितप्रद है, इस बात का परिज्ञान जड़ पदार्थों को नहीं होता । यदि किसी पत्थर पर आप पुष्प-हार चढ़ाते हैं, तो इस सद्व्यवहार का पता उसे नहीं चलता, अतः आपके इस व्यवहार से वह प्रसन्न भी नहीं होला । यदि आप उस पर प्रहार करते हैं। उसके टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं, तब भी उसे उसकी कोई अनुभूति नहीं होती। और आपके इस दुर्व्यवहार से न उसे द्वेष हीआता है। । परन्तु चैतन्य के साथ जो व्यवहार होता है, उसका उस पर प्रभाव पड़ता ही है। उसे अनुकूल और प्रतिकूल, सुखरूप और दुःखरूप-दोनों प्रकार की अनुभूति होती है। "चेतना ही ऐसी शक्ति है-जिसमें प्रत्येक प्रकार के व्यवहार को जानने की, समझने की और उस पर मनन करने की शक्ति एवं क्षमता है। चैतन्य अच्छे और बुरे व्यवहार को समझता है, और उसके प्रति अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त करता है। किसी भी व्यक्ति पर प्रहार किया जाए तो उसे पीड़ा, दुःख एवं क्लेश की अनुभूति होगी, और वह उसका प्रतिकार करने या प्रतिशोध लेने का भी प्रयत्न करेगा। अहिंसा का जन्म इसी भावना से होता है। किसी एक व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति पर किया गया प्रहार उसके शरीर तक ही सीमित नहीं है। प्रत्युत वह अन्दर में शरीर से सम्बन्धित चेतना को भी प्रभावित करता है। प्रहार की अनुभूति चेतना से ही होती है। चेतना से रहित शव पर कितना ही प्रहार करिए, उसे कोई अनुभूति नहीं होती। शव को आप अग्नि में जलाकर भस्म कर देते हैं, तो क्या उसे पीड़ा होती है? इसके विपरीत यदि किसी जीवित व्यक्ति को चेितन ' व्यक्ति को जलाने का प्रयत्न करें, तो उसे अनुभूति हुए बिना नहीं रहेगी। अतः हिंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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