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११० / अस्तेय दर्शन की है। आत्मा को पहचानने वाला निश्चय ही धर्म को पहचान लेता है। उपनिषद्कार के शब्दों में तो वह सब कुछ जान लेता है
"आत्मनि विज्ञाने सर्वमिदं विज्ञातं भवक्ति।" जो सब कुछ जान लेता है, वह देवत्व की ओर प्रस्थान करेगा ही। अतः बात हुई, कि धर्म की भूमिका पर से मनुष्य और पशु अलग होते हैं । यदि मनुष्य उस धर्म के बारे में कभी कुछ भी नहीं सोचता है, तो वह थोड़ा चिन्तनीय है। यह तो हम कह आए हैं कि धर्म का मतलब 'निर्मल भावना' से है । काम, क्रोध, लोभ, मात्सर्य आदि की जो तामसिक वृत्तियाँ हैं, अशुद्ध उपयोग हैं, उन पर काबू पाकर, शुद्धोपयोग की ओर अग्रसर बने । लेकिन शुद्धोपयोग इतनी सरल वस्तु नहीं है, कि एक छलांग लगाई और बस चढ़ गए। सर्वोपरि उसके लिए आत्मा में जागृति होनी चाहिए। किन्तु जब तक प्राणी आत्म-जागृति के सोपान पर नहीं चढ़ जाता है, तब तक शुभोपयोग को नहीं छोड़े। लोहे वाले को यदि सोना न मिलकर चाँदी मिलती हो तो क्या ? सोना न मिलने पर क्या वह चाँदी की उपेक्षा करेगा? अतः स्पष्ट है, शुभोपयोग की ओर प्रवृत्ति होने पर अशुभोपयोग से बचा जा सकता है।
अध्यात्म दृष्टि से विचार करें, तो आकृति से भले ही कोई मनुष्य हो या पशु हो-यदि वह अशुभ में रहता है, तो वह पशुत्व भाव में रहता है। यदि शुभ या शुद्ध की भूमिका में रहता है, तो वह मनुष्य है, देव है। और जब मानव समस्त निम्न भूमिकाओं को लांघकर पूर्ण वीतराग रूप शुद्धत्व की भूमिका पर पहुँच जाता है, तब वह महामानव हो जाता है, देवताओं का भी देवता बन जाता है। उसके जीवन में भ्रान्ति नहीं रहती। उसका लक्ष्य स्थिर हो जाता है।
भगवान महावीर व्यक्ति के सुधार से ही समाज का सुधार मानते हैं । यदि व्यक्ति सुधर जाए, तो सारा समाज ही सुधर जाए।
जैन भवन,
आगरा
नवम्बर, १९६९
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