Book Title: Asteya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 124
________________ अस्तेय दर्शन / १०९ विद्यमान रहती है। यही बात जैन मनोविज्ञान कहता है, चार संज्ञाओं में मैथुन संज्ञा की चिनगारी भी प्रत्येक संसारी प्राणी में रहती है। इन चार बातों में तो मनुष्य और पशु की भूमिका समान ही है। भेद की भूमिका : अब देखना यह है, कि फिर कौन-सी ऐसी बात है, जो इन दोनों में भेदरेखा खींचती है। जैसे भारत और चीन के बीच में मेक मोहन रेखा खिंची हुई है। आज पश्चिमी बर्लिन और पूर्वी बर्लिन के बीच में भी भेद-रेखा खींची गई है। तो, मनुष्य और धरातल के बीच भी आखिर कौन- सी वह रेखा है, जहाँ से एक ऊपर उठता है, दूसरा वहीं पर स्थिर रहता है। भेद की यह रेखा आत्म परिबोध से प्रारम्भ में होती है। आत्मपरिबोध की भाषा में मनुष्य अपनी दुर्बलताओं को समझ सकता है। बस, वह उत्तर मिलता है, कि मनुष्य मनुष्य क्यों है ? और पशु पशु क्यों है ? पशु प्रलोभनों की ओर आकृष्ट होता है, वह भूत और भविष्य के परिणाम का स्पष्ट चिन्तन नहीं कर सकता। मनुष्य में विवेक है। शास्त्र की भाषा में विवेक करना यही धर्म है। इस भलाई और बुराई की पहचान ने ही मनुष्य को मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित किया है। जब हम धर्म की बात करते हैं, तब हमारा अभिप्राय किसी सम्प्रदाय अथवा सम्प्रदायाश्रित मनोवृत्ति से नहीं है। सम्प्रदाय तो मात्र एक मार्ग होता है, मंजिल नहीं । जब हम मार्ग के विषय में ही उलझ कर गड़बड़ा जाते हैं, तब मंजिल पाना मुश्किल होता है। समझ लीजिए कि नदी, नहर या कुए का पानी तो धर्म है। उस पानी को स्थिर और उपयोगी रखने के लिए बर्तन रूप सम्प्रदाय है। बर्तन का काम सिर्फ पानी को सुरक्षित रखने का है, यदि बर्तन के कारण पानी गंदा होता हो, तो वह बर्तन उपयुक्त नहीं है! सम्प्रदाय के कारण यदि धर्म बदनाम होता है-जैसा कि होता आया है, तो उस सम्प्रदाय में धर्म की साधना नही हो सकती। अतः सम्प्रदाय का मूल यही है कि वह धर्म की साधना आत्मस्वरूप को पहचानने में सहायक हो। यह किसी एक मनुष्य की बात नही है ! आज का समस्त मानव समाज ही दिग्भ्रान्त बना है। अपने जीवन की सही दिशा को वह भूल बैठा है। लक्ष्यहीन होकर इधर-उधर होकर भटक रहा है। इतने लम्बे विवेचन के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, कि मनुष्य और पशु के बीच जो भेद- रेखा है, वह शरीर, इन्द्रिय और मन के बोध से परे आत्मा के परिबोध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152