Book Title: Asteya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 122
________________ अस्तेय दर्शन / १०७ मैं कौन हूँ? विचारकों की अंतदृष्टि जब खुली तब कोई शरीर पर आकर टिक गई। कोई दृष्टि, थोड़ी आगे बढ़ी और इंद्रियों के जेल में गुमराह हो गई। कुछ चिंतक और आगे बढ़े और मन की भूमिका पर आकर रुक गए। पाश्चात्य चिंतक अभी तक मन के घेरे के आस-पास की घूम रहे हैं, जबकि भारत के चिंतक हजारों-लाखों वर्ष पूर्व ही मन के ऊपर की भूमिका पर चढ़ चुके हैं। आत्म-तत्त्व की सत्ता के बारे में उन्होंने चिंतन किया, अनुभव किया और संसार को उसके सम्बन्ध में स्पष्ट विचार दिए। शरीर तक की बुद्धि तो पशु को भी होती है, इन्द्रिय और मन तक का अनुभव भी पशु-पक्षियों में होता है, किन्तु वे अपने विषय में कुछ भी नहीं जान सकते, कि वे स्वयं क्या हैं ? क्यों हैं कहाँ से आए हैं ? यहाँ आने का क्या मकसद है ? और यदि इस चीज का ज्ञान उन्हें हो गया, तो समझ लीजिए फिर पशु पशु नहीं रहा, वह देवत्व (दिव्य-स्वरूप) की ओर अग्रसर हो गया। संसार के जीवधारियों में मनुष्य की श्रेष्ठता का सिक्का इसलिए चलता है, कि वह इन प्रश्नों के सम्बन्ध में काफी गहराई से चिंतन करता है। आत्म-तत्व की खोज बहुत आसान नहीं है, इसके पीछे दीर्घ साधना की जरूरत है। तपना पड़ता है। एक व्यक्ति गुरू की खोज करने निकला। अनेक गुरूओं के पास वह पहुँचा। किसी ने उसे स्वर्ग का द्वार दिखाया, किसी ने नरक की घोर यातनाओं का वीभत्स चित्र दिखाया, तो किसी ने इन्द्रासन, चक्रवर्ती साम्राज्य के सुनहरे स्वप्न दिखाए, किन्तु वे सारी भूमिकाएँ शरीर, इन्द्रिय और मन तक ही सीमित रहीं, और उस जिज्ञासु की आत्म-जिज्ञासा बनी की बनी ही रही। अंत में वह एक गुरू के पास पहुँचा। गुरू कुटिया के भीतर बैठे थे, द्वार बन्द थे। जिज्ञासु ने जब द्वार खटखटाए तो भीतर से आवाज आई-कौन है ? जिज्ञासु ने बड़ी शालीनता के साथ जवाब दिया-इसी प्रश्न के समाधान के लिए तो मैं आपके पास आया हूँ कि मैं कौन हूँ ? अभी तक मैं समझ नहीं पाया हूँ। गुरू ने शिष्य के अन्तर को परख लिया । द्वार खुले और एक भव्यमूर्ति बाहर आई। जिज्ञासु ने गुरू से फिर वही प्रश्न किया कि मैं यह जानना चाहता हूँ कि मैं कौन हूँ, मैं शरीर हूँ, या इन्द्रिय हूँ ? या मन हूँ ? अथवा इनसे भी परे कुछ और हूँ ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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