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अस्तेय दर्शन / ९३
है, उससे भी बड़ी और भयानक उथल-पुथल हुई हैं, आदर्शों के अवमूल्यन से जीवन के क्षेत्र में | हम अपने आदर्शों से गिर गए हैं, जीवन का मूल्य विघटित हो गया है, राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर के आदर्शों का भी हमने अवमूल्यन कर डाला है। बस इस अवमूल्यन से ही यह गड़बड़ हुई है, यह अव्यवस्था पैदा हुई है।
क्या मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी है ?
एक बार एक सज्जन से चर्चा चल रही थी। हर बात में वे अपना तकिया कलाम • दुहराते जाते थे 'महाराज ! क्या करें, मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी है।' इसके बाद अन्यत्र भी यह दुर्वाक्य कितनी ही बार सुनने में आया है। मैं समझ नहीं पाया, क्या मतलब हुआ इसका ? क्या महात्मा गाँधी एक मजबूरी की उपज थे ? गाँधी का दर्शन, जो प्राचीन भारतीय दर्शन का आधुनिक नव स्फूर्त संस्करण माना जाता है, क्या कोई मजबूरी का दर्शन है ? भारत की स्वतन्त्रता के लिए किए जाने वाले सत्याग्रह, असहयोग, स्वदेशी आन्दोलन तथा अहिंसा और सत्य के प्रयोग क्या केवल दुर्बलता थी, मजबूरी थी, लाचारी थी ? कोई महान् एवं उदात्त जैसा कुछ नहीं था ? क्या गाँधीजी की तरह ही महावीर और बुद्ध का त्याग भी एक मजबूरी थी ? और, राम का वनवास भी आखिर किस मजबूरी का समाधान था। वस्तुतः यह मजबूरी हमारे प्राचीन आदर्शों की नहीं, अपितु हमारे वर्तमान स्वार्थ-प्र -प्रधान चिन्तन की है, जो आदर्शों के अवमूल्यन से पैदा हुई है।
मनुष्य झूठ बोलता है, बेईमानी करता है, और जब उससे कहा जाता है, कि ऐसा क्यों करते हो तब उत्तर मिलता है, क्या करें, मजबूरी है। पेट के लिए यह सब कुछ करना पड़ता है। अभाव ने सब चौपट कर रखा है। मैं सोचता हूँ, यह मजबूरी, यह पेट और अभाव क्या इतना विराट हो गया है कि मनुष्य की सहज अन्तश्चेतना को भी निगल जाए ? महापुरुषों के प्राचीन आदर्शों को यों डकार जाए ? मेरे विचार से मजबूरी और अभाव उतना नहीं है, जितना महसूस किया जा रहा है। अभाव में पीड़ा का रूप उतना नहीं है, जितना स्वार्थ के लिए की जाने वाली बहाने बाजी है। इतने असहिष्णु क्यों हो गये ?
मैं इस सत्य से इन्कार नहीं कर सकता, कि देश में आज कुछ हद तक अभावों की स्थिति है। किन्तु उन अभावों के प्रति हम में सहिष्णुता का एवं उनके प्रतिकार के
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