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९४ / अस्तेय दर्शन
लिए उचित संघर्ष का अभाव भी तो एक बहुत बड़ा अभाव है। पीड़ा और कष्ट कहने के लिए नहीं, सहने के लिए आते हैं। किसी बात को लेकर थोड़ा-सा भी असंतोष हुआ कि बस तोड़-फोड़ पर उतारू हो गए। सड़कों पर भीड़ इकट्ठी हो गई, राष्ट्र की सम्पत्ति की होली करने लगे पुतले जलाने लगे-यह सब क्या है ? क्या इन तरीकों से अभावों की पूर्ति की जा सकती है ? सड़कों पर अभावपूर्ति के फैसले किए जा सकते हैं ? ये हमारी पाशविक वृत्तियाँ हैं, जो असहिष्णुता से जन्म लेती हैं, अविवेक से भड़कती हैं, और फिर हम उद्दाम होकर विनाश-लीला करके नाच उठते हैं । मैं यह समझ नहीं पाया, कि जो सम्पत्ति जलाई जाती है, वह आखिर किसकी है? राष्ट्र की है न, यह विद्रोह किसके साथ किया जा रहा है? अपने ही शरीर को नोच कर क्या अपनी खुजली मिटाना चाहते हैं ? यह तो निरी बेवकूफी है। इससे समस्या सुलझ नहीं सकती, असंतोष मिट नहीं सकता और न अभाव एवं अभाव-जन्य आक्रोश दूर किया जा सकता है। अभाव और मजबूरी का इलाज सहिष्णुता है। राष्ट्र के अभ्युदय के लिए किए जाने वाले श्रम में योगदान है । असंतोष का समाधान धैर्य है, और है, उचित पुरुषार्थ। आप तो अधीर हो रहे हैं, इतने निष्क्रिय एवं असहिष्णु हो रहे हैं, कि कुछ भी बर्दाश्त नहीं कर सकते। यह असहिष्णुता, यह अधैर्य इतना व्यापक क्यों हो गया है? राष्ट्रीय स्वाभिमान की कमी :
आज. मनुष्य में राष्ट्रीय स्वाभिमान की कमी हो रही है। राष्ट्रीय चेतना लुप्त हो रही है। अपने छोटे-से घोंसले के बाहर देखने की व्यापक दृष्टि समाप्त हो रही है। जब तक राष्ट्रीय-स्वाभिमान जागृत नहीं होता, तब तक कुछ भी सुधार नहीं होगा। घर में, दुकान में या दफ्तर में कहीं भी आप बैठें, मगर राष्ट्रीय स्वाभिमान के साथ बैठे रहिए। अपने हर कार्य को अपने क्षुद्र हित की दृष्टि से नहीं, राष्ट्र के गौरव की दृष्टि से देखने का प्रयत्न कीजिए। आपके अन्दर और आपके पड़ोसी के अन्दर जब एक ही प्रकार की राष्ट्रीय चेतना जागृत होगी, तब एक समान अनुभूति होगी, और आपके भीतर राष्ट्रीय स्वाभिमान जाग उठेगा। ___ राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों में समूचे राष्ट्र में अखण्ड राष्ट्रीय चेतना का एक पवाह उमड़ा था। एक लहर उठी थी, जो पूर्व से पश्चिम तक को, उत्तर से दक्षिण तक को एक साथ आन्दोलित कर रही थी। स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास पढ़ने वाले
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