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६२ / अस्तेय दर्शन
आपको मन मिला है; किन्तु उसके द्वारा यदि आप सुन्दर विचार नहीं करते हैं और दिन रात आपका मन कूड़े-कर्कट का ढेर बनता जाता है, समाज में से सुन्दर विचार को न लेकर आप गंदे विचारों का ही संग्रह करते जाते हैं, तो यह मानसिक पाप और चोरी है
इसी प्रकार हम बुरे दृश्यों से अपनी आंखों को नहीं हटाते, आंखों का अच्छाई की तरफ उपयोग नहीं करते, दुर्वासनाओं को भड़काने वाली पुस्तकों को पढ़ते हैं और सत्शास्त्रों की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखते तो हम आंखों का दुरुपयोग कर रहे हैं। यह भी एक प्रकार की चोरी है।
यह कान बुरे शब्द और गालियाँ सुन कर मजा लूटने के लिए नहीं है, यह अच्छी और सुन्दर वाणी सुनने के लिए हैं। संसार में अनेक महात्मा पुरुष हो गए हैं और आज भी मौजूद हैं और उनकी दिव्य और कल्याणकारिणी वाणी सभी को सुनने अथवा पढ़ने के लिये मिल जाती है, तो, उस पवित्र वाणी की सहायता से हम अपने जीवन को पवित्र और सात्विक बना सकते हैं। मगर जो ऐसा न करके केवल अपावन रूप को देखने और शब्द को सुनने में ही अपनी आंखों और कानों का उपयोग करता है, वह अपनी देखने और सुनने की शक्ति का चोर है।
इसी प्रकार मनुष्य के हाथ, पैर और दूसरे अंगोपांग, दूसरों को कुछ देने के लिए हैं, न कि दूसरों से कुछ छीनने के लिए। अगर कोई छीनने में उनका इस्तेमाल करता है तो वह चोर हो जाता है ।
इन तमाम बातों को एक साथ समेट कर अगर कहा जाय तो यही कहा जा सकता है कि मनुष्य को शरीर, इन्द्रियाँ, धन, वैभव और सोचने-विचारने के लिए मन आदि-आदि जो भी सम्पत्ति मिली है, उसको उसका उपयोग जीवन को ऊँचा, मंगलमय और पवित्र बनाने के लिए ही करना चाहिए। इसके विरूद्ध जो अपनी शक्ति को, सम्पत्ति को या शरीर को अथवा किसी भी अन्य वस्तु को गलत कामों में लगाता है और अच्छे कामों में उनका उपयोग नहीं करता, वह अपने मनुष्यत्व की चौरी करता है। वह अपनी उक्त वस्तुओं का ठीक-ठीक उपयोग न करने के कारण, समाज में ऐसा जीवन लेकर चल रहा है, जिसे हम गंदा या निकम्मा जीवन कहते हैं । जब समाज में इस प्रकार का जीवन-यापन करने वाले लोगों की प्रचुरता हो जाती है, तो वह समाज बर्बाद हो जाता है, और एक दिन रसातल को चला जाता है ।
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