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अस्तय दशन/६१
रक्खा है कि उसके अन्तर्गत आने से कोई भी भाव छूट नहीं पाया है। तो अब इस प्रकाश में आप संपत्ति के सम्बन्ध में विचार कीजिए। किसी के पास धन-सम्पत्ति है। वह देख रहा है कि झोंपड़ियाँ जल रही हैं, झोंपड़ियों के कलेजे जल रहे हैं, बालक, बूढ़े और महिलाएँ भूख की कराल ज्वाला में भस्म हो रही हैं, फिर भी उसका पाषाण-हृदय द्रवित नहीं होता। वह अपनी उस शक्ति को कलेजे से लगाए बैठा है। यही नहीं, बल्कि इस भीषण परिस्थिति से लाभ उठा कर अपने धन की वृद्धि के प्रयास में लगा है, तो समाज के सामने आज ज्वलंत प्रश्न उपस्थित है कि उस धनवान को क्या कहा जाय ? उसे चोर न कहें तो क्या कहें ?
धन भी एक शक्ति है, ताकत है और अपने आप में एक बल है। वह उस शक्ति का उपयोग न अपने लिए करता है, न दूसरों के लिए करता है। क्या वह अपनी शक्ति को नहीं छिपा रहा है ? ऐसी स्थिति में उसे चोर क्यों नहीं कहा जा सकता?
आपको मुँह बोलने के लिए मिला है और आँखें देखने के लिए मिली हैं। एक अंधा चला जा रहा है और उसके आगे एक गड़ढा है उस बेचारे की आंखों में प्रकाश नहीं है। अतः वह गड्ढे को देख नहीं सकता। परन्तु आप खड़े-खड़े देख रहे हैं । मुँह से बोलने की आवश्यकता है और बोलने को मुँह आपके पास मौजूद है, किन्तु आप उस वक्त अपना मुँह नहीं खोलते । अंधे को गड्ढे या कुए की सूचना नहीं देते तो अंधा तो गड्ढे या कुए में गिरेगा ही ; किन्तु आप उससे भी अधिक हिंसा और निर्दयता के घोर गड्ढे में गिरेंगे। कहा है
जो तू देखे अंध के, आगे है इक कूप ।
तो तेरा चुप बैठना, है निश्चय अघरूप ॥ तू देख रहा है कि अंधे के आगे कूप है और वह उसकी ओर चला जा रहा है, तब भी तू चुप बैठा रहता है, बोलता नहीं है और अंधे को उस खतरे से सावधान भी नहीं करता है, तो तेरा मौन रहना पाप है और देखना भी पाप है। यह आँखों की चोरी है कि तू देख रहा है और वह बर्बाद हो रहा है ! यदि उस हालत में भी तू पुरुषार्थ को काम में नहीं लाता है तो अपने ज्ञान और दर्शन की चोरी कर रहा है।
अभिप्रायः यह है कि हमें जो तत्व मिले हैं और जो भी महत्त्वपूर्ण वस्तु मिली हैं, उसका ठीक-ठीक उपयोग न करना भी शास्त्रों के चिन्तन में चोरी है।
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