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अस्तेय दर्शन/७५
चोरी के सम्बन्ध में तीसरी जो बात है, उसका सम्बन्ध व्यापारियों से नहीं, साहित्यिकों से है। किसी साहित्यकार ने एक ग्रन्थ बनाया है। अथवा कविता लिखी है। दूसरे सभी लोग न वैसा ग्रंथ लिख सकते हैं, न वैसी कविता रच सकते हैं। तब वे उस ग्रंथ या कविता में से कुछ भाग चुरा लेते हैं और एक नयी-सी चीज तैयार कर लेते हैं। जिस ग्रन्थ से वह लिया गया है, उस ग्रंथ का या उसके लेखक के नाम का उल्लेख नहीं करते हुए अपने नाम से उसे प्रकाशित करा देते हैं, यह भी चोरी है अथवा नहीं ?
इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर यही है कि ऐसा करना भी चोरी है। यहाँ तो साफ ही अदत्त का आदान किया जा रहा है। केवल यह समझना आवश्यक है कि चोरी का मतलब सिक्के, नोट, कपड़ा, जेवर या अन्न ही चुराना नहीं है, बल्कि किसी दूसरे के हक की कोई भी वस्तु हड़प लेना, छीन लेना, छुपा लेना और अपनी बना लेना भी चोरी ही है। ___ यह चोरी भी आजकल खूब चलती है। लोगों को अकसर मालूम नहीं पड़ता कि यह चीज मूलतः किसकी है ? बड़ी चतुरता से दूसरा उसे अपने नाम से प्रकट और प्रकाशित कर देता है और जनसाधारण में वाहवाही लूटता है। जिसकी चीज ली है, उसका यदि उल्लेख कर दिया जाय, तो चोरी से बचा जा सकता है, किन्तु ऐसा न. करके उसे अपनी चीज के रूप में प्रकर' करना तो सीधी चोरी ही है। .
कभी-कभी ऐसा होता है कि खुद में तो लिखने की योग्यता नहीं होती, पर लेखक कहलाने की महत्त्वाकांक्षा रोकी भी नहीं जाती। तब वह दूसरे से लिखा लेता है और अपने नाम से प्रकट करा देता है । यह भी सिद्धान्त की दृष्टि से चोरी है।
अपने विचारों में बल नहीं है, शक्ति नहीं है, तो मनुष्य को दूसरों के विचारों से लाम उठाना चाहिए, परन्तु उसे प्रामाणिकतापूर्वक ही ऐसा करना चाहिए। अपने ग्रंथ में दूसरे के विचारों का या वाक्यों का उल्लेख करना या उदाहरण देना कोई बुराई नहीं है, बल्कि कभी-कभी तो ऐसा करना आवश्यक होता है और ऐसा करने से उस ग्रंथ में सुन्दरता आ जाती है, परन्तु दूसरे के लेख को अपना ही लेख बना कर प्रकाशित करना उचित नहीं है।
व्यापारी चोरी करके सिक्के इकट्ठा करता है और लेखक चोरी करके प्रतिष्ठा और गौरव प्राप्त करना चाहता है। बात एक ही है। सिद्धान्त की दृष्टि में यह नाम की चोरी है।
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