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७८ / अस्तय दर्शन
इस प्रसंग पर एक घटना याद आ गई। एक बार हम विहार करके जा रहे थे । गर्मी तेज थी और धूप कड़ी थी। मार्ग में एक निवास मिला, आस-पास हरे-भरे सघन वृक्ष भी थे। हम विश्रान्ति के हेतु वहाँ बैठने लगे तो कुछ लोगों ने कहा- 'महाराज ! यहाँ मत बैठिए ।'
मैंने पूछा- 'क्या बात है भाई ?'
वे आपस में फुसफुस करने लगे और फिर एक ने कहा- 'महाराज, यह निवास एक वेश्या ने बनवाया है और यह पेड़ भी उसी ने लगवाए हैं। अतएव यहाँ बैठना पाप है।'
मैंने पूछा- उस वेश्या का जीवन कैसा है ? तब उसने कहा- पहले तो उसका पापमय जीवन था; किन्तु बाद में शायद यह सोचकर कि मैंने बहुत गुनाह किये हैं, जिन्दगी को बर्बाद कर लिया है। उसने अपना वेश्या का धंधा छोड़ दिया और प्रभु भजन में लग गई। उसके पास जो पैसा था, उससे यहाँ यह कार्य किया है।
यह सुनकर मैंने कहा- यदि उसका जीवन बदल गया, विचार बदल गये और अपने पहले के गुनाहों के लिए उसके हृदय में पश्चाताप का भाव उत्पन्न हुआ, फलतः उसने प्रायश्चित किया, तो तुम क्या चाहते हो ? क्या उसे धर्म नहीं करने देना चाहते ?
इसके बाद मैंने फिर कहा- बात यह है भाई, कि पैसा किसी भी तरह आया हो, किन्तु यदि वह सद्बुद्धि से उस धन को इस रूप में खर्च करता है तो कोई बैठे या नहीं, मैं तो बैठूंगा ही। एक बार किसी ने बुराई कर ली तो इसके बाद के बदले हु पवित्र जीवन के सत्कर्मों को भी गुनाह ही समझना और पाप कहना, किसी प्रकार भी उचित नहीं है ।
सद्बुद्धि जागृत होने पर, पैसा जिससे आया हो, उसे लौटा दिया जाय तो अच्छा है। अगर लौटाने की व्यवस्था नहीं हो सकती हो उसका प्रायश्चित कर लेना भी ठीक है ।
हाँ, इस सम्बन्ध में एक बात ध्यान में रखनी चाहिए। कोई आदमी एक ओर तो चोरबाजारी करता जा रहा है, अनीति से अपनी तिजोरियाँ भरता जा रहा है और उधर कुछ पैसे धर्म के काम में लगा रहा है, और फिर भी वही अनीति करता चला जा रहा है, इस प्रकार एक तरफ गुनाह हो रहा है और दूसरी तरफ प्रायश्चित भी हो रहा है तो
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