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८० / अस्तेय दर्शन
इसी प्रकार का एक और प्रश्न भी उपस्थित होता है। किसी ने अनीति से पैसा कमाया है, या कमा रहा है, उसके यहाँ किसी ने भोजन कर लिया। भोजन करने वाले को यह बात मालूम नहीं है, और सम्भव है, मालूम होने पर भी नातेदारी की वजह से या किसी सम्बन्ध के कारण खा लेता है, तो प्रश्न है कि उस भोजन करने वाले व्यक्ति को उनकी अनीति के किसी अंश का कुफल भोगना पड़ेगा या नहीं ?
मैं समझता हूँ कि इस विचार में सचाई नहीं है। बात यह है कि संसार बहुत विराट है, अतः कौन क्या कर रहा है, यह जान लेना बड़ा कठिन है। ऐसी स्थिति में एक भूखा आता है और भोजन कर लेता है, कोई प्यासा आकर पानी पी लेता है या साधु जाकर आहार- पानी ले आता है, तो इससे उसके पाप का अंश आहार -पानी लेने वाले को भी लगता है; यह चिन्तन न्यायमूलक नहीं है। अन्याय से पैसा पैदा करने वाले का जो समर्थन और अनुमोदन नहीं करता, जो उससे अलग है और जो अनजान में चला गया है और यथावसर कुछ खा-पी लेता है, वह उसके पाप के अंश का भागी हो, यह एकान्त स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
परन्तु शायद यह बात आपके ध्यान में नहीं आएगी; क्योंकि कहा है
जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन ।
जैसा पीवे पानी, वैसी बोले बानी ||
परन्तु इस उक्ति पर शान्ति के साथ विचार करना चाहिए। वास्तव में चोर का अन्न कौन खाता है ? जो चोरी करके लाया है और डाका डाल कर लाया है, उसका अन्न उसके परिवार वालों को मिलता है और उन्हीं के लिए यह उक्ति चरितार्थ होती है। चोर और डाकू के परिवार वाले उसकी चोरी और डकैती का अनुमोदन करते हैं । वह परिवार एक गिरोह के रूप में है। उन्हीं के लिए वह पैसा और अन्न आया है और वे भली-भाँति जानते हैं कि यह किस प्रकार आया है ? अतएव वे जैसा अन्न खाते हैं वैसा ही उनका मन हो जाता है। यहाँ यह सिद्धान्त ठीक है। किन्तु चोर अपने लिए चोरी कर रहा है और एक सन्त, जिन्हें उसकी आजीविका के विषय में जानकारी नहीं है, उसके यहाँ पहुँच जाते हैं और भिक्षा ले जाते हैं, अथवा कोई गृहस्थ, जो उसकी बुराई का समर्थक नहीं है और जिसमें चोरी का कोई भाव नहीं है, उसके घर कारणवश भोजन कर लेता है, तो उस चोर का पाप उन संत और उस गृहस्थ को चिपट जायगा, यह
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