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अस्तेय दर्शन/६५
नहीं देती। माली की तराजू पर थोड़ी शाक-भाजी डाली या न डाली, इस बात का कुछ विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, उससे ज्यादा लाभ या हानि नहीं होती। किन्तु उसी तराजू से अगर जौहरी तोलने लगे तो कितनी हानि होगी? वहाँ तो रत्ती-रत्ती और माशे-माशे का हिसाब है। तो, हमें अपने जीवन को जौहरी की तराजू से तोलना है, न कि माली की तराजू से।
मान लीजिए, कोई साधु ज्ञानी और विचारक है, उसका मस्तिष्क उर्वर है, और उसमें न जाने कितने आचार्यों के चिन्तन और विचार भरे पड़े हैं । उसने भगवान् महावीर की वाणी को ग्रहण किया है। लेकिन इस योग्य होने पर भी यदि वह दूसरों को वह सन्देश नहीं देता है, तो यह भी चोरी का एक रूप है या नहीं-सोचना यह है।
हमारे पास ज्ञान का जो संग्रह है हमने शास्त्रों से और आचार्यों की वाणी से उसे ले लिया है। वह हमारी अपनी चीज नहीं है। उस ज्ञान के लिए हम उन आचार्यों के ऋणी हैं । उस ऋण को चुकाने का एक ही तरीका है कि जब कोई सुपात्र जिज्ञासु हमारे सामने आये तो हम उस ज्ञान को देने में अपना अहोभाग्य समझें । अगर कोई ऐसा नहीं करता, ज्ञान का आदान तो करता है, मगर प्रदान नहीं करता तो वह ज्ञान का चोर है।
मुझे एक बड़े मुनि के सम्बन्ध में मालूम है। एक बार प्रवचन करते समय उन्होंने प्रसंगवश उर्दू-भाषा की एक शेर पढ़ी। उन्हीं दिनों एक दूसरे मुनि वक्ता बनने की तैयारी कर रहे थे। और उसी सभा में वह भी बैठे थे। आप जानते हैं कि सभी लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुरूप सामग्री जुटाने के लिए हाथ-पैर फैलाते हैं । तो उन्होंने उन बड़े मुनि से कहा-'मुनिजी, वह शेर मुझे पसन्द आई और उपयोगी जान पड़ी, अगर उसे मुझे लिखा सकें तो बड़ी कृपा हो ।'
बड़े मुनि बोले-'कौन-सा शेर ! मेरे तो ध्यान में नहीं है। यहाँ तो सैकड़ों शेर आते हैं और चले जाते हैं । और भैया ! बात ऐसी है कि मैं जब व्याख्यान देना आरम्भ करता हूँ, तभी शेर याद आते हैं, नहीं तो नहीं आते हैं।'
यह सुनकर मुझे हँसी आ गई। मैंने उस छोटे मुनि से कहा- 'मैया, ये तो भीख माँगने वाले हैं, भीख देने वाले नहीं है।'
व्याख्यान में अपनी कल्पनाएँ धारा-प्रवाह के रूप में चलती हैं। संभव है, बाद में
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