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६६ / अस्तेय दर्शन उनका स्मरण रहे अथवा न भी रहे, मगर जो चीज बनी-बनाई है, जो कहीं से ली गई है, लाई गई है; और लाई गई है तो उसकी स्मृति भी होनी चाहिए। और स्मृति रहती भी है; मगर न जाने, देते वक्त मन क्यों काँपता है। एक मारवाड़ी सन्त ने कहा है
. भीख मांह से भीख दे तो पुण्य मोटा होय रे। जो भीख तूने प्राप्त की है, उसमें से देने की शक्ति होना बड़ी बात है और देना बड़ा सत्कर्म है।
सार यह है कि जो प्राप्त ज्ञान दूसरों को देने के लिए तैयार नहीं रहता, वह ज्ञान के मार्ग को अवरुद्ध कर रहा है। परम्परा से चले आते ज्ञान के प्रवाह को सुखा डालने का प्रयत्न कर रहा है। भगवान महावीर ने तो कहा है कि योग्य अधिकारी मिले, पात्र मिले और फिर भी जो अपने संचित ज्ञान का अर्पण न करे तो वह ज्ञान का चोर है और वह ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध करता है। इसका अर्थ यह है कि उसे आज जो शक्ति प्राप्त है, वह फिर नहीं मिलेगी। सिद्धान्त के नाते यह ठीक ही है। जो चोर होगा वह साहूकार नहीं होगा। चोर और साहूकार में एक प्रकार से विरोध है। कोई कितना ही ज्ञान प्राप्त करले अथवा धन जोड़ ले, किन्तु यदि उसकी चोरी कर रहा है तो, इस जन्म में नहीं तो क्या हुआ, अगले जन्म में तो निश्चय ही उसे उससे वंचित होना पड़ेगा।
एक हाथ को महीने भर तक यों ही रहने दिया जाय और उससे कोई हरकत न की जाय तो फिर उसमें हल-चल नहीं होगी। वह हड्डियों का ढाँचा-मात्र रह जायगा। जैसे शरीर का यह हाल है कि काम न करने से वह झूठा पड़ जाता है, यानी काम करने से इन्कार कर देता है, उसी प्रकार तुम्हें जो शक्ति मिली है, उसका उपयोग नहीं करोगे, यथा अवसर सक्रिय न रहोगे तो वह शक्ति भी झूठी पड़ जायगी और अगले जन्म में फिर वह मिलने वाली नहीं है।
इस चिन्तन को ध्यान में रखकर हमें अपने कर्तव्य को ठीक समय पर अदा करना है और अपनी शक्तियों का सदुपयोग करना है। जो धनपति है, उसे अपने धन का समाज के हित के लिए सदुपयोग करना होगा और जो ज्ञानवान् है उसे दूसरों को
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