________________
६० / अस्तय दशन
संत वीरियं न निगूहितव्वं । संते वीरिये न अण्णो आणाइयव्वों ॥
- आवश्यकचूर्णि
जिस काम को करने की शक्ति, सामर्थ्य या बल तुममें मौजूद है, उसे छिपाओ मत। उस शक्ति को कौने में मत डालो। अगर शक्ति को छिपा लोगे तो, कहा गया है, यह भी एक प्रकार की चोरी है।
इसी प्रकार जो काम तुम स्वयं कर सकते हो, उसको करने के लिए दूसरों को आदेश मत दो। ऐसा करना अपने वीर्य का तिरस्कार करना है, अपनी शक्ति का अपमान करना है और अपने कर्त्तव्य की चोरी करना है ।
जैनधर्म जैसा ऊँचा और विराट धर्म जीवन के समग्र सत्य को सामने लेकर आया है। उसने व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व की मंगलसाधना के लिए जो बहुमूल्य सूत्र प्रदान किये हैं, उनमें दर्शन की समस्त धाराओं का समावेश हो जाता है । गांधीवाद और सर्वोदयवाद की आधुनिकतम विचारधाराएँ भी उसमें सम्मिलित हैं । हजारों वर्षों के पहले ही हमारे आचार्यों की वाणी को, जब हम आज पढ़ते और सुनते हैं, तो कभी-कभी ऐसा जान पड़ने लगता है, मानो इस युग की गुत्थियों को आज से हजारों वर्ष पहले सुलझा कर रख दिया गया है। उनकी वाणी में जीवन के महान और उच्च सभी आदर्श प्रतिबिम्बित होते हैं ।
आचार्य जिनदास ने कितने सुन्दर और सादे ढंग से कहा है- तू अपनी शक्ति को मत छिपा और जब तेरे शरीर में काम करने की शक्ति है तो दूसरे पर हुक्म मत चला।
जैसे किसी साधु ने उपवास कर लिया है और दूसरे साधुओं ने नहीं किया है। उनके लिए आहार लाना आवश्यक है, तो उपवासी साधु शक्ति रहते ऐसा न कहे- 'आज आहार तुम ले आओ, मैं उपवास में हूँ ।'
इस प्रकार जब तक तुम्हारी शक्ति काम दे रही है, दूसरे से काम करने को मत कहो । हां, शक्ति न हो तो कह सकते हो। शक्ति और जवाबदारी रहते काम न करना चोरी है। हाँ, अशक्ति की अवस्था में आज्ञा देना साहूकार का काम है ।
इसीलिए हमारे आचार्यों ने इस विषय का इतना सूक्ष्म विश्लेषण हमारे सामने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org