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अस्तेय दर्शन/५९
और देश को भी दूंगा । मैं अपने व्यक्तित्व को समृद्ध बनाकर मानव जाति के हित में उसे लगा दूँगा। इतना महान् आदर्श है विद्यार्थियों के सामने । मगर वह काम नहीं करता है। अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह नहीं करता है, तो उसके लिए भी आप वही कहेंगे कि वह कर्तव्य का चोर है।
एक आदमी स्वस्थ और शरीर से हृष्ट-पुष्ट है। उसमें इतनी ताकत है कि समय आने पर सेवा में जुट जाय और रात-दिन निकाल दे तो भी उसका कुछ भी न बिगड़े, शरीर पर बुरा प्रभाव न पड़े; फिर भी यदि वह सेवा नहीं करता और सेवा का अवसर आने पर बहाने-बाजी करके टालमटूल कर जाता है तो वह शक्ति का चोर माना जाता है। ___ अभिप्राय यह है कि जिस व्यक्ति ने जो उत्तरदायित्व और कर्त्तव्य अपने ऊपर ओढ़ा है, जिस जिम्मेवारी को अंगीकार किया है, उससे विमुख होना, उसे शक्ति भर. पूरा न करना और फिर भी उसके परित्याग की प्रामाणिक घोषणा न करना, कर्तव्य की चोरी है। राजा हो या मजदूर, साधु हो या श्रावक, शिक्षक हो या शिष्य, स्वामी हो या सेवक, स्त्री हो या पुरुष, कोई भी क्यों न हो, जब तक वह अपने कर्तव्य का पालन करता है, तब तक वह साहूकार है और जब कर्त्तव्य के प्रति लापरवाही दिखलाता है तो चोर की श्रेणी में आ जाता है। आचार्य जिनदास :
आचार्य जिनदास महत्तर हमारे यहाँ, जैनों में एक बड़े दार्शनिक हो गए हैं। उनका साहित्य पढ़ने योग्य है । जब उनके ग्रन्थों का अध्ययन होता है और उन पर विचार एवं चिन्तन किया जाता है तो उन ग्रन्थों में कदम-कदम पर एक से एक अनमोल बोल लिपिबद्ध हुये दृष्टिगोचर होते हैं । वे महान आचार्य हमारे जीवन के लिए अमृत की वर्षा कर गये हैं । उन्होंने एक सुन्दर उल्लेख किया है, जो इस प्रसंग में उपयोगी है। वे कहते हैं-कोई साधु गोचरी का काम कर रहा है, अध्ययन या उपदेश देने का काम कर रहा है, या कुछ दूसरा काम कर रहा है और वह सशक्त तथा समर्थ भी है और इस कारण स्वयं ही काम कर सकता है, बतलाया गया है कि उसको स्वयं ही काम करना चाहिए । जब दूसरा कोई आवश्यक काम न हो और समय खाली हो तो अपने हाथों से ही अपना कर्त्तव्य पूरा करना योग्य है। जो काम तुमको मिला है उसको तुम समय पर पूरा कर दो। आचार्य कहते हैं
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